शहीद करतार सिंह सराभा
करतार सिंह सराभा
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"जो देश अपने वीर और महान सपूतों को भूल जाता है, उस देश के आत्मसम्मान को हीनता की दीमक चट कर जाती है।" ....... याद रखना दोस्तों।
हमें समय समय पर इन महान हस्तियों को याद करते रहना चाहिए। अपने बच्चों, छोटे भाई-बहनों, आदि को इन वीर सपूतों की वीर गाथाओं को समय-समय पर सुनाना चाहिए। इन अमर बलिदानियों के किस्से-कहानियों को कॉपी-पेस्ट करके अपने-अपने सोशल नेटवर्क पर डालना चाहिए व एक दूसरे को शेयर करना चाहिए, ताकि और लोगो को भी इन अमर बलिदानियों व शहीदों के बारे में पता लग सके।
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी .......
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करतार सिंह ‘सराभा’: वह भारतीय क्रांतिकारी, जिसे ब्रिटिश मानते थे ‘अंग्रेजी राज के लिए सबसे बड़ा खतरा’!
“देस नूँ चल्लो
देस नूँ चल्लो
देस माँगता है क़ुर्बानियाँ
कानूं परदेसां विच रोलिये जवानियाँ
ओय देस नूं चल्लो…
...देशभक्ति की भावना से भरे इस गीत के बोलों को सही मायने में सार्थक किया करतार सिंह सराभा ने। करतार सिंह ‘सराभा’, एक क्रांतिकारी और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, जिसने अमेरिका में रहकर भारतियों में क्रांति की अलख जगाई थी।
सिर्फ 19 साल की उम्र में देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले इस सपूत को उसके शौर्य, साहस, त्याग एवं बलिदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।
माँ भारती की स्वाधीनता के लिए अल्पायु (19 वर्ष) में ही अपने प्राणों की आहुति देने वाले शौर्य और बलिदान के पर्याय, महान क्रांतिकारी अमर शहीद करतार सिंह सराभा जी की जयंती पर उन्हें अनंतकोटि नमन।🙏
करतार सिंह
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सराभा, पंजाब के लुधियाना ज़िले का एक चर्चित गांव है। लुधियाना शहर से यह करीब पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है। गांव बसाने वाले रामा व सद्दा दो भाई थे। गांव में तीन पत्तियां हैं-सद्दा पत्ती, रामा पत्ती व अराइयां पत्ती। सराभा गांव करीब तीन सौ वर्ष पुराना है और १९४७ से पहले इसकी आबादी दो हज़ार के करीब थी, जिसमें सात-आठ सौ मुसलमान भी थे। इस समय गांव की आबादी चार हज़ार के करीब है।
करतार सिंह का जन्म पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गाँव में 24 मई, 1896 को एक संपन्न पंजाबी परिवार में हुआ था। बचपन में ही पिता का साया उनके सिर से उठ गया था, जिसके बाद उनके दादा बदन सिंह ने उनका तथा छोटी बहन का लालन-पालन किया। सराभा ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा लुधियाना में ही प्राप्त की थी। नौवीं कक्षा पास करने के पश्चात् वे अपने चाचा के पास उड़ीसा चले गये और वहीं से हाई स्कूल की परीक्षा पास की।
साल 1912 में उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजा गया।
क्रांतिकारी बनने का सफ़र
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जिस करतार को भारत में रहते हुए कभी भी गुलामी का अहसास नहीं हुआ था, उन्हें अमेरिका की धरती पर कदम रखते ही इसका अहसास होने लगा। दरअसल, जब जहाज से वे अमेरिका की सरजमीं पर उतरे तो उन्हें वहां अधिकारीयों ने रोक लिया। उनसे काफी पूछताछ हुई और उसके बाद उनके सामान आदि की तलाशी हुई। करतार यह देखकर हैरान थे, क्योंकि बाकी यात्रियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं हुआ था।
जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो जबाव मिला, ‘तुम भारत से आये हो जो एक गुलाम देश है!’
इस एक वाकये ने अमेरिका में पढ़ने आए करतार सिंह की सोच को, जिंदगी की दिशा को और जीने के उद्देश्य को पूरी तरह से बदल दिया। दाखिला लेने के बाद वो बाकी भारतियों से गुलामी से मुक्ति और अमेरिका में रहकर देश के लिए कुछ करने की बातें करने लगें। उस वक्त बर्कली यूनीवर्सिटी में नालंदा क्लब ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स एक अच्छा प्लेटफॉर्म था, जिससे करतार सिंह जुड़ गए।
करतार का सम्पर्क लाला हरदयाल से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने सेन फ़्राँसिस्को में रहकर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये। करतार हमेशा उनके साथ रहते और हर एक कार्य में उन्हें सहयोग देते थे। उस समय अमेरिका में पढ़ने या काम करने आये नौजवान धीरे-धीरे संगठित हो रहे थे। लाला हरदयाल और भाई परमानंद ने भारतीय विद्यार्थियों के दिलों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई।
साल 1913 में ‘ग़दर पार्टी’ की स्थापना की गयी जिसका एक ही उद्देश्य था -1857 की तरह की क्रांति एक फिर दोहराकर देश को आज़ाद करना!
बर्कले विश्वविद्यालय में तकरीबन 30 विद्यार्थी भारतीय थे, जिनमें से अधिकतर बंगाली और पंजाबी थे। 1913 में लाला हरदयाल जी इन विद्यार्थियों के संपर्क में आये और इन्हें अपने विचारों से दो-चार कराया। लाला हरदयाल और भाई परमानंद ने भारत की ग़ुलामी पर एक जोशीला भाषण दिया। जिसने करतार सिंह की सोच पर गहरा असर किया और वो भारत की आज़ादी के बारे में विस्तार और गहराई से सोचने लगे।
लाला हरदयाल का साथ
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1911 ई. में करतार सिंह सराभा अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ अमेरिका चले गये। वे 1912 में सेन फ़्राँसिस्को पहुँचे। वहाँ पर एक अमेरिकन अधिकारी ने उनसे पूछा "तुम यहाँ क्यों आये हो?" सराभा ने उत्तर देते हुए कहा, "मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूँ।" किन्तु सराभा उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। वे हवाई जहाज बनाना एवं चलाना सीखना चाहते थे। अत: इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक कारखाने में भरती हो गये। इसी समय उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील दिखे। उन्होंने सेन फ़्राँसिस्को में रहकर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये। करतार सिंह सराभा हमेशा उनके साथ रहते थे और प्रत्येक कार्य में उन्हें सहयोग देते थे।
साहस की प्रतिमूर्ति
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करतार सिंह सराभा साहस की प्रतिमूर्ति थे। देश की आज़ादी से सम्बन्धित किसी भी कार्य में वे हमेशा आगे रहते थे। 25 मार्च, 1913 ई. में ओरेगन प्रान्त में भारतीयों की एक बहुत बड़ी सभा हुई, जिसके मुख्य वक्ता लाला हरदयाल थे। उन्होंने सभा में भाषण देते हुए कहा था, "मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें।" इस पर सर्वप्रथम करतार सिंह सराभा ने उठकर अपने आपको प्रस्तुत किया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लाला हरदयाल ने सराभा को अपने गले से लगा लिया।
सम्पादन कार्य
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इसी सभा में 'गदर' नाम से एक समाचार पत्र निकालने का निश्चय किया गया, जो भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करे। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित किया जाये और जिन-जिन देशों में भारतवासी रहते हैं, उन सभी में इसे भेजा जाये। फलत: 1913 ई. में 'गदर' प्रकाशित हुआ। इसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य करतार सिंह सराभा ही करते थे।
क्रांतिकारियों के साथ चलती है क्रांति
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पंजाब में विद्रोह चलाने के दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरू की। भारत के गुलाम हालातों पर उनकी पैनी नज़र स्पष्ट विचारों का निर्माण कर रही थी। राजबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ अपने विचार साझे किए और क्रांतिकारियों की एक सेना बनाने का सुझाव दिया। फिर एक अख़बार शुरू किया गया ‘ग़दर’, जिसके मस्ट हैड पर लिखा होता था, ‘अंग्रेजी राज के दुश्मन’! कई भाषाओं में इसे शुरू किया गया, गुरुमुखी एडीशन की जिम्मेदारी करतार सिंह पर आई। इस समाचार पत्र में देशभक्ति की कविताएं छपती थी और लोगों से अपनी धरती को बचाने की अपील की जाती थी।
साल 1914 में जब ‘प्रथम विश्व युद्ध’ प्रारम्भ हुआ, तो अंग्रेज़ युद्ध में बुरी तरह फँस गये। ऐसी स्थिति में ‘ग़दर पार्टी’ के कार्यकर्ताओं ने सोचा और योजना बनाई कि यदि इस समय भारत में विद्रोह हो जाये, तो भारत को आज़ादी मिल सकती है।
करतार और अन्य क्रांतिकारियों के प्रभाव में लगभग 4000 लोग भारत के लिए निकल पड़े। लेकिन किसी ने यह भेद अंग्रेजी सरकार के सामने खोल दिया और इन सभी क्रांतिकारियों को भारत पहुँचने से पहले ही बंदी बना लिया गया।
हालांकि, करतार अपने कुछ साथियों के साथ यहाँ से बच निकले। वे गुप्त रूप से पंजाब पहुंचे और यहाँ भी उन्होंने लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया। उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रासबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों से भेंट की। उनके प्रयत्नों से जालंधर में एक गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें पंजाब के सभी क्रांतिकारियों ने भाग लिया।
इस गोष्ठी के बाद रासबिहारी बोस पंजाब आये और उन्होंने अपना एक दल बनाया। इस क्रांतिकारी दल ने भारतीय फौजियों को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध क्रांति छेड़ने के लिए प्रभावित किया। योजना के अनुसार 21 फ़रवरी, 1915 ई. का दिन समस्त भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया था। पर ब्रिटिश सरकार को पहले ही इसका पता चल गया।
हुआ यह कि पुलिस का एक गुप्तचर क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गया था। उसे जब 21 फ़रवरी को समस्त भारत में क्रांति होने के बारे में जानकारी मिली, तो उसने 16 फ़रवरी को योजना के बारे में ब्रिटिश सरकार को बता दिया। जिसके बाद चारों ओर जोरों से गिरफ्तारियाँ होने लगीं।
बंगाल तथा पंजाब में तो गिरफ्तारियों का तांता लग गया। रासबिहारी बोस किसी प्रकार लाहौर से वाराणसी होते हुए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गये और वहाँ से फर्जी नाम से पासपोर्ट बनवाकर जापान चले गये। उन्होंने करतार को भी अफगानिस्तान जाने की सलाह दी पर करतार नहीं गये। उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। वे जगह-जगह फौजी छावनियों में जाकर सैनिकों को जागरूक करने लगे। लायलपुर की चक नंबर 5 में उन्होंने विद्रोह करवाने की कोशिश की और गिरफ्तार हो गए। वो चाहते तो बाकी नेताओं की तरह निकल सकते थे, लेकिन इससे गदर का नाम बदनाम होता और वो ये नहीं चाहते थे।
करतार सिंह सराभा पर हत्या, डाका, शासन को उलटने का आरोप लगाकर ‘लाहौर षड़यन्त्र’ के नाम से मुकदमा चलाया गया। उनके साथ 63 दूसरे क्रांतिकारियों पर भी मुकदमा चलाया गया था।
उन्हें फाँसी की सजा सुनाते वक़्त ब्रिटिश जज ने कहा कि इतनी सी उम्र में ही यह लड़का ब्रिटिश साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
अंतिम समय भी दिया संदेश
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मुकदमे के दौरान ब्रिटिश जज के आरोपों के जवाब में करतार सिंह ने पंजाबी में कहा था : .....
“सेवा देश दी जिंदड़िये बड़ी औखी
गल्लां करनियां ढेर सुखल्लियाँ ने
जिन्हें देश सेवा विच पाइर पाया
ओहना लाख मुसीबतां झल्लियां ने”
फाँसी पर चढ़ने से पहले करतार के अंतिम शब्द थे : ....
“हे भगवान मेरी यह प्रार्थना है कि मैं भारत में उस समय तक जन्म लेता रहूँ, जब तक कि मेरा देश स्वतंत्र न हो जाये।”
16 नवंबर 1915 को करतार को फाँसी हुई। पर करतार की इस क्रांति को शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह ने जीवित रखा।
भगत सिंह व करतार सिंह
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भगत सिंह करतार को अपना गुरु मानते थे। वे करतार की तस्वीर हमेशा अपनी जेब में रखते थे। ‘नौजवान भारत सभा’ नामक युवा संगठन की हर जनसभा में करतार के चित्र को मंच पर रख कर उसे पुष्पांजलि दी जाती थी।
भगत सिंह को करतार की लिखी हुई एक ग़ज़ल बहुत प्रिय थी और वे अक्सर इसे गुनगुनाते थे : .....
“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा.”
वतन पर मर-मिटनेवाले ऐसे महान वीरों को तहे-दिल से नमन !
16 नवंबर 1915 को करतार सिंह ने मात्र 19 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।
ऐसे जाबांज, बहादुर अमर महान शहीद करतार सिंह सराभा जी को मेरा शत-शत नमन.... 💐💐💐💐
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