गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी


गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी
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तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...
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हिंद की चादर श्री गुरु तेग बहादुर जी के बारे में स्कालर राजिंदर सिंह कहते हैं कि गुरु तेग बहादुर जी ने गुरु गद्दी, गुरु हरिकृष्ण साहिब से ली जो उस समय दिल्ली में हैजा जैसी बीमारी के बीच जान गंवा रहे लोगों की सेवा करते हुए ज्योति जोत समा गए। अब एक बार फिर वैसे ही हालात हैं। जो संस्थाएं श्री गुरु तेग बहादुर जी का प्रकाशोत्सव मना रही हैं उनके कंधों पर यह जिम्मेदारी है कि वह मानवता की सेवा करके गुरु के संदेश को दुनिया तक पहुंचाएं।

माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी 21अप्रैल को रात 9.30 बजे से पहली बार दिन छुपने के लाल किले से गुरु तेगबहादुरजी के 400 वें प्रकाश पर्व राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे।

पीएम नरेन्द्र मोदी जी ने ट्विटर पर लिखा था “अपने 400 वें प्रकाश पूरब के विशेष अवसर पर, मैं श्री गुरु तेग बहादुर जी को नमन करता हूं। उनके साहस और दलितों की सेवा के उनके प्रयासों के लिए उन्हें विश्व स्तर पर सम्मानित किया जाता है। उन्होंने अत्याचार और अन्याय के सामने झुकने से इनकार कर दिया था। उनका सर्वोच्च बलिदान कई लोगों को शक्ति और प्रेरणा देता है।"

गुरु तेग बहादुर जी का जो सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रभाव है वह है धैर्य और शांति। यह उनके जीवन की धरोहर रही है जिसकी वजह से उन्होंने 26 साल लगातार भक्ति की। जब गुरुत्व मिला और दुश्मनों ने भी वार किया तब भी उन्होंने शांति रखने के लिए आनंदपुर नगरी बसा दी। उसके बाद उन्होंने धर्म की खातिर बलिदान दिया। उन्होंने मौत के बारे में जो लिखा है उसका शायद ही कहीं वर्णन मिलता है। मौत को उन्होंने पानी के बुलबले की तरह बताया है। आज के दौर में जब कोरोना का खौफ है तो गुरु तेग बहादुर जी की वाणी पढ़ना जीवन जीने की राह जानना हो सकता है।

पूरा नाम    : गुरु तेग़ बहादुर सिंह
जन्म         : 2 अप्रैल, 1621
जन्म भूमि  : अमृतसर, पंजाब
मृत्यु          : 24 नवम्बर, 1675
मृत्यु स्थान  : चांदनी चौक, नई दिल्ली
अभिभावक : गुरु हरगोविंद सिंह और माता नानकी
पत्नी          : माता गुजरी
संतान         : गुरु गोविन्द सिंह
उपाधि        : सिक्खों के नौवें गुरु
नागरिकता   : भारतीय

गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी (जन्म: 2 अप्रैल, 1621 ई.; मृत्यु: 24 नवम्बर, 1675 ई.) सिक्खों के नौवें गुरु थे। विश्व के इतिहास में धर्म एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में इनका अद्वितीय स्थान है। तेग़ बहादुर जी के बलिदान से हिंदुओं व हिन्दू धर्म की रक्षा हुई। हिन्दू धर्म के लोग भी उन्हें याद करते और उनसे संबंधित कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। उन्हें तिलक - जंजू दे राखे (तिलक और जनेऊ के रक्षक) भी कहा जाता है। उन दिनों मुगल शासक औरंगजेब पूरे भारत में इस्लाम की स्थापना करना चाहता था। उसके जुल्म से परेशान कश्मीर से कुछ ब्राह्मण आनंदपुर साहिब में श्री गुरु तेग बहादुर साहिब के पास फरियाद लेकर पहुंचे। इसके बाद गुरु साहिब दिल्ली पहुंचे और औरंगजेब से कहा, यदि तुम जबरदस्ती लोगों से इस्लाम कबूल करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो, क्योंकि इस्लाम यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए। गुस्से में आए औरंगजेब ने गुरु जी का सिर कलम करवा दिया। तेग़ बहादुर सिंह 20 मार्च, 1664 को सिक्खों के गुरु नियुक्त हुए थे और 24 नवंबर, 1675 तक गद्दी पर आसीन रहे।

जीवन परिचय :-
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गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। ये गुरु हरगोविन्द जी के पाँचवें पुत्र थे। आठवें गुरु इनके पोते 'हरिकृष्ण राय' जी की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण जनमत द्वारा ये नवम गुरु बनाए गए। इन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और ये वहीं रहने लगे थे। उनका बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुग़लों के हमले के ख़िलाफ़ हुए युद्ध में उन्होंने वीरता का परिचय दिया। उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग़ बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया।

युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से गुरु तेग़ बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका का मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेग़ बहादुर जी ने एकांत में लगातार 20 वर्ष तक 'बाबा बकाला' नामक स्थान पर साधना की। आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए 'बाबा बकाले' का निर्देश दिया। गुरु जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।

इसके बाद गुरु तेग़ बहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा। रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए। उन्होंने परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने।

बलिदान की कथा :-
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गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु माने जाते हैं। औरंगज़ेब के शासन काल की बात है। औरंगज़ेब के दरबार में एक विद्वान् पंडित आकर रोज़ गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगज़ेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन किन श्लोकों का अर्थ राजा से सामने नहीं करना था। पंडित के बेटे ने जाकर औरंगज़ेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। गीता का पूरा अर्थ सुनकर औरंगज़ेब को यह ज्ञान हो गया कि प्रत्येक धर्म अपने आपमें महान् है किन्तु औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि वह अपने के धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा सहन नहीं थी। औरंगज़ेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दे दिया और संबंधित अधिकारी को यह कार्य सौंप दिया। औरंगज़ेब ने कहा -'सबसे कह दो या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें।' इस प्रकार की ज़बर्दस्ती शुरू हो जाने से अन्य धर्म के लोगों का जीवन कठिन हो गया।

जुल्म से ग्रस्त कश्मीर के पंडित गुरु तेग़ बहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार ‍इस्लाम को स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है, यातनाएँ दी जा रही हैं। हमें मारा जा रहा है। कृपया आप हमारे धर्म को बचाइए।
गुरु तेग़ बहादुर जब लोगों की व्यथा सुन रहे थे, उनके 9 वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंद सिंह) वहाँ आए और उन्होंने पिताजी से पूछा -
'पिताजी, ये सब इतने उदास क्यों हैं? आप क्या सोच रहे हैं?'
गुरु तेग़ बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्याएं बाला प्रीतम को बताईं तो उन्होंने पूछा- 'इसका हल कैसे होगा?'
गुरु साहिब ने कहा- 'इसके लिए बलिदान देना होगा।'
बाला प्रीतम ने कहा-' आपसे महान् पुरुष कोई नहीं है। बलिदान देकर आप इन सबके धर्म को बचाइए।'
उस बच्चे की बातें सुनकर वहाँ उपस्थित लोगों ने पूछा- 'यदि आपके पिता बलिदान देंगे तो आप यतीम हो जाएँगे। आपकी माँ विधवा हो जाएगीं।'
बाला प्रीतम ने उत्तर दिया- 'यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएँ विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।'

तत्पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब से कह ‍दें कि यदि गुरु तेग़ बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेग़ बहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे'। औरंगज़ेब ने यह स्वीकार कर लिया।

गुरु तेग़ बहादुर दिल्ली में औरंगज़ेब के दरबार में स्वयं गए। औरंगज़ेब ने उन्हें बहुत से लालच दिए, पर गुरु तेग़ बहादुर जी नहीं माने तो उन पर ज़ुल्म किए गये, उन्हें कैद कर लिया गया, उनके दो शिष्यों को मारकर गुरु तेग़ बहादुर जी को ड़राने की कोशिश की गयी, पर वे नहीं माने।
उन्होंने औरंगजेब से कहा- 'यदि तुम ज़बर्दस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए।'

बलिदान :-
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औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो गया। उस ज़ालिम ने दिल्ली के चाँदनी चौक पर गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी का शीश काटने का हुक्म ज़ारी कर दिया और महान गुरु जी ने 24 नवम्बर,1675 को हँसते-हँसते अपना बलिदान दे दिया।

गुरु तेग़ बहादुरजी की याद में उनके 'शहीदी स्थल' पर आज एक गुरुद्वारा बना हुआ है, जिसका नाम गुरुद्वारा 'शीश गंज साहिब' है।

लेखन कार्य :-
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गुरु तेग़ बहादुर जी की बहुत सी रचनाएँ ग्रंथ साहब के महला 9 में संग्रहित हैं। इन्होंने शुद्ध हिन्दी में सरल और भावयुक्त 'पदों' और 'साखी' की रचनायें की। सन् 1675 में गुरु जी धर्म की रक्षा के लिए अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपने चार शिष्यों के साथ धार्मिक और वैचारिक स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए। उनके अद्वितीय बलिदान ने देश की 'सर्व धर्म सम भाव' की संस्कृति को सुदृढ़ बनाया और धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ निर्भयता से जीवन जीने का मंत्र भी दिया।

शत-शत नमन करूँ मैं आपको ....💐💐💐💐
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#VijetaMalikBJP

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