झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई जी
★ झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई ★
●~~~~~~~~~~~~~~~~●
🌿 चमक उठी सन 57 में,
वो तलवार पुरानी थी.. 🌿
🌿 घायल होकर गिरी सिंहनी,
उसे वीर गति पानी थी..🌿
🌿दिखा गई पथ, सीखा गई हमको,
जो सीख सिखानी थी..🌿
🌿 खुब लड़ी मर्दानी वो तो,
झाँसी वाली रानी थी.. 🌿
रानी लक्ष्मीबाई उर्फ़ झाँसी की रानी मराठा शासित राज्य झाँसी की रानी थी। जो उत्तर-मध्य भारत में स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी जिन्होंने अल्पायु में ही ब्रिटिश साम्राज्य से संग्राम किया था।
पूरा नाम – राणी लक्ष्मीबाई गंगाधरराव
जन्म – 19 नवम्बर, 1835
जन्मस्थान – वाराणसी
पिता – श्री मोरोपन्त
माता – भागीरथी
शिक्षा – मल्लविद्या, घुसडवारी और शत्रविद्याए सीखी
विवाह – राजा गंगाधरराव के साथ
★Queen of Jhansi Rani Lakshmi Bai – झांसी की रानी लक्ष्मी बाई★
घुड़सवारी करने में रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही निपुण थी। उनके पास बहोत से जाबाज़ घोड़े भी थे जिनमे उनके पसंदीदा सारंगी, पवन और बादल भी शामिल है। जिसमे परम्पराओ और इतिहास के अनुसार 1858 के समय किले से भागते समय बादल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद में रानी महल, जिसमे रानी लक्ष्मीबाई रहती थी वह एक म्यूजियम में बदल गया था। जिसमे 9 से 12 वी शताब्दी की पुरानी पुरातात्विक चीजो का समावेश किया गया है।
उनकी जीवनी के अनुसार ऐसा दावा किया गया था की दामोदर राव उनकी सेना में ही एक था। और उसी ने ग्वालियर का युद्ध लड़ा था। ग्वालियर के युद्ध में वह अपने सभी सैनिको के साथ वीरता से लड़ा था। जिसमे तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओ ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिको की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्ज़ा कर लिया।
*19 नवम्बर 1835 जन्म दिवस
खूब लड़ी मर्दानी वह तो..झांसी वाली रानी थी*
भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उसे घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनन्द आता था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था। अतः सात वर्ष की अवस्था में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव से हो गया। विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं। उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो गया। दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे। युवावस्था के सुख देखने से पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं।
उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर राजा के परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी गोटियाँ बैठा रहे थे।
*जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली और झांसी को चारों तरफ से घेर लिया।
जब अंग्रेजी सेना झांसी पर अधिकार करने के लिए किले में घुसने का प्रयास कर रही थी, तो झलकारी बाई शीघ्रता से रानी के महल में पहुँची और उन्हें दत्तक पुत्र सहित सुरक्षित किले से बाहर जाने को कहा। रानी लक्ष्मीबाई ने ऐसा करने से मना कर दिया, पर अंत में उन्हें झलकारी बाई की जिद के आगे झुकना पड़ा और रानी लक्ष्मी बाई गुप्त मार्ग से निकल कर कालपी जा पहुँची। रानी को सुरक्षित निकल जाने में झलकारी बाई ने भी सहायता दी।
इसके बाद झलकारी बाई ने जो काम किया, उसकी कल्पना मात्र से ही रोमांच हो आता है। उसने रानी लक्ष्मीबाई के गहने और वस्त्र आदि स्वयं पहन लिये और रानी को एक साधारण महिला के वस्त्र पहना दिये। इस प्रकार वेष बदलकर रानी बाहर निकल गयीं। दूसरी ओर रानी का वेष धारण कर झलकारी बाई रणचंडी बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ी।
काफी समय तक अंग्रेज सेना के अधिकारी भ्रम में पड़े रहे। वे रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा या मुर्दा किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करना चाहते थे; पर दोनों हाथों में तलवार लिये झलकारी उनके सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट रही थी। उस पर हाथ डालना आसान नहीं था। तभी एक देशद्रोही दुल्हाज ने जनरल ह्यूरोज को बता दिया कि जिसे वे रानी लक्ष्मीबाई समझ रहे हैं, वह तो दुर्गा दल की नायिका झलकारी बाई है।
यह जानकर ह्यूरोज दंग रह गया। उसके सैनिकों ने एक साथ धावा बोलकर झलकारी को पकड़ लिया। झलकारी फाँसी से मरने की बजाय वीरता की मृत्यु चाहती थी। उसने अपनी एक सखी वीरबाला को संकेत किया। संकेत मिलते ही वीरबाला ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। इस प्रकार झलकारी बाई ने अपने जीवन और मृत्यु, दोनों को सार्थक कर दिखाया।
रानी लक्ष्मी बाई पीछे हटकर कालपी जा पहुँची। कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।*
भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झाँसी की रानी एक आदर्श वीरांगना थी। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नही घबराता। उसका लक्ष्य हमेशा उदार और उच्च होता है। वह सदैव आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ट होता है। और ऐसी ही वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।
ऐसी वीरांगना के लिए हमें निम्न पंक्तिया सुशोभित करने वाली लगती है। –
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सिंहासन हिल उठे, राजवंशो ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नयी जवानी थी।
गुमी हुई आज़ादी की कीमत, सबने पहचानी थी।
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुह, हमने सुनी कहानी थी।
खुब लढी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी!!
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★तो ऐसी थी हमारी महान झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई ★
शत-शत नमन करूँ मैं आपको..... 🌿💐💐💐🌿
🙏🙏
#VijetaMalikBJP
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🌿 चमक उठी सन 57 में,
वो तलवार पुरानी थी.. 🌿
🌿 घायल होकर गिरी सिंहनी,
उसे वीर गति पानी थी..🌿
🌿दिखा गई पथ, सीखा गई हमको,
जो सीख सिखानी थी..🌿
🌿 खुब लड़ी मर्दानी वो तो,
झाँसी वाली रानी थी.. 🌿
रानी लक्ष्मीबाई उर्फ़ झाँसी की रानी मराठा शासित राज्य झाँसी की रानी थी। जो उत्तर-मध्य भारत में स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी जिन्होंने अल्पायु में ही ब्रिटिश साम्राज्य से संग्राम किया था।
पूरा नाम – राणी लक्ष्मीबाई गंगाधरराव
जन्म – 19 नवम्बर, 1835
जन्मस्थान – वाराणसी
पिता – श्री मोरोपन्त
माता – भागीरथी
शिक्षा – मल्लविद्या, घुसडवारी और शत्रविद्याए सीखी
विवाह – राजा गंगाधरराव के साथ
★Queen of Jhansi Rani Lakshmi Bai – झांसी की रानी लक्ष्मी बाई★
घुड़सवारी करने में रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही निपुण थी। उनके पास बहोत से जाबाज़ घोड़े भी थे जिनमे उनके पसंदीदा सारंगी, पवन और बादल भी शामिल है। जिसमे परम्पराओ और इतिहास के अनुसार 1858 के समय किले से भागते समय बादल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद में रानी महल, जिसमे रानी लक्ष्मीबाई रहती थी वह एक म्यूजियम में बदल गया था। जिसमे 9 से 12 वी शताब्दी की पुरानी पुरातात्विक चीजो का समावेश किया गया है।
उनकी जीवनी के अनुसार ऐसा दावा किया गया था की दामोदर राव उनकी सेना में ही एक था। और उसी ने ग्वालियर का युद्ध लड़ा था। ग्वालियर के युद्ध में वह अपने सभी सैनिको के साथ वीरता से लड़ा था। जिसमे तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओ ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिको की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्ज़ा कर लिया।
*19 नवम्बर 1835 जन्म दिवस
खूब लड़ी मर्दानी वह तो..झांसी वाली रानी थी*
भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उसे घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनन्द आता था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था। अतः सात वर्ष की अवस्था में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव से हो गया। विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं। उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो गया। दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे। युवावस्था के सुख देखने से पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं।
उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर राजा के परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी गोटियाँ बैठा रहे थे।
*जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली और झांसी को चारों तरफ से घेर लिया।
जब अंग्रेजी सेना झांसी पर अधिकार करने के लिए किले में घुसने का प्रयास कर रही थी, तो झलकारी बाई शीघ्रता से रानी के महल में पहुँची और उन्हें दत्तक पुत्र सहित सुरक्षित किले से बाहर जाने को कहा। रानी लक्ष्मीबाई ने ऐसा करने से मना कर दिया, पर अंत में उन्हें झलकारी बाई की जिद के आगे झुकना पड़ा और रानी लक्ष्मी बाई गुप्त मार्ग से निकल कर कालपी जा पहुँची। रानी को सुरक्षित निकल जाने में झलकारी बाई ने भी सहायता दी।
इसके बाद झलकारी बाई ने जो काम किया, उसकी कल्पना मात्र से ही रोमांच हो आता है। उसने रानी लक्ष्मीबाई के गहने और वस्त्र आदि स्वयं पहन लिये और रानी को एक साधारण महिला के वस्त्र पहना दिये। इस प्रकार वेष बदलकर रानी बाहर निकल गयीं। दूसरी ओर रानी का वेष धारण कर झलकारी बाई रणचंडी बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ी।
काफी समय तक अंग्रेज सेना के अधिकारी भ्रम में पड़े रहे। वे रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा या मुर्दा किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करना चाहते थे; पर दोनों हाथों में तलवार लिये झलकारी उनके सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट रही थी। उस पर हाथ डालना आसान नहीं था। तभी एक देशद्रोही दुल्हाज ने जनरल ह्यूरोज को बता दिया कि जिसे वे रानी लक्ष्मीबाई समझ रहे हैं, वह तो दुर्गा दल की नायिका झलकारी बाई है।
यह जानकर ह्यूरोज दंग रह गया। उसके सैनिकों ने एक साथ धावा बोलकर झलकारी को पकड़ लिया। झलकारी फाँसी से मरने की बजाय वीरता की मृत्यु चाहती थी। उसने अपनी एक सखी वीरबाला को संकेत किया। संकेत मिलते ही वीरबाला ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। इस प्रकार झलकारी बाई ने अपने जीवन और मृत्यु, दोनों को सार्थक कर दिखाया।
रानी लक्ष्मी बाई पीछे हटकर कालपी जा पहुँची। कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।*
भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झाँसी की रानी एक आदर्श वीरांगना थी। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नही घबराता। उसका लक्ष्य हमेशा उदार और उच्च होता है। वह सदैव आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ट होता है। और ऐसी ही वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।
ऐसी वीरांगना के लिए हमें निम्न पंक्तिया सुशोभित करने वाली लगती है। –
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सिंहासन हिल उठे, राजवंशो ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नयी जवानी थी।
गुमी हुई आज़ादी की कीमत, सबने पहचानी थी।
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुह, हमने सुनी कहानी थी।
खुब लढी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी!!
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★तो ऐसी थी हमारी महान झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई ★
शत-शत नमन करूँ मैं आपको..... 🌿💐💐💐🌿
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