अयोध्या का इतिहास जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे

साथियों,

श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में दिनांक 5 अगस्त, 2020 के पावन दिवस पर दोपहर 12 बजकर 15 मिनट 15 सैकेंड पर हमारे महान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा शुद्ध चाँदी की ईंट रख कर भूमि पुजन किया जाएगा व उसके बाद भव्य श्रीराम मंदिर की शुरुआत होगी। ये एक ऐतिहासिक दिन होगा। इस मंदिर के निर्माण की नीव रखने के साथ ही उन सभी ज्ञात-अज्ञात वीरों, बलिदानियों की आत्मा भी बहुत प्रसन्न होगी जिन्होंने श्रीराम जी के नाम पर अपने जीवन को सदा-सदा के लिए बलिदान कर दिया और श्रीराम के चरणों मे अनन्त काल के लिए स्थान पाया .. 
तो आइए जानते हैं हम सब देशवासी उन सभी श्रीराम भक्तों की गौरवगाथा को और अयोध्या के इतिहास को जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे.. 

★ जय श्री राम ★
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अयोध्या का इतिहास जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे।
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राममंदिर पर मुगलों और तुर्कों ने कई हमले किये लाखों हिन्दुओं ने दी अपने प्राणों की आहुति
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जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय राम जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी।
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा।

ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना। अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि राम जन्मभूमि पर इस राम मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।

सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा, बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए राम जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर राम मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू नदी में प्रवाहित कर दी और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए।

मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए।
जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। 

जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई, उस समय भीटी के राजपूत राजा महताब सिंह, बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे, अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।

रामभक्तों ने सौगंध ले रखी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है, तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। रामभक्त वीरता के साथ लड़े। ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। 

इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया । मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ। पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।

इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ तीन पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया।

इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी
गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी।

उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥ देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं .... आप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से
पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥

देवीदीन पाण्डेय की प्रार्थना से दो दिन के भीतर 90 हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर-दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरदस्त धावा बोल दिया।

शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ ।
छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपनी पगड़ी से खोपड़ी को बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए..
राम जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥

पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के राजपूत महाराजा रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया ।
10 दिन तक युद्ध चला और महाराजा रणविजय सिंह राम जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। राम जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा। 

रानी जयराज कुमारी, हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थी। जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी
जयराज कुमारी के साथ हुमायूँ के समय में कुल १० हमले राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।

लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी, इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी। 

रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव-गांव में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये। इन २० हमलों में कम से कम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था। थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी....
.....जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।

उस समय का मुग़ल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी..
अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया।

लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी ..

इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास किया गया। अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।

यही क्रम जहाँगीर व शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।
फिर औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो एक कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था।
उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलाकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।

औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशी क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया, जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।

ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बांधते, जूता नहीं पहनते, छाता नहीं लगाते, क्योंकि उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे, तब तक जूता नहीं पहनेंगे, छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।

1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक जबरदस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे। जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने
आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना भी मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया। चिमटाधारी साधुओं के चिमटे की मार से मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी।

जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके ही वापस आना है, यह समय सन् 1680 का था । बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह जी से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के माध्यम से संदेश भेजा ।

पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह जी सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला। ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के गुरु गोविंद सिंह जी रामलला की रक्षा हेतु एक साथ रणभूमि में कूद पड़े।

इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4साल तक उसने अयोध्या पर दोबारा हमला करने की हिम्मत नहीं की। 

औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्रीराम जन्मभूमि पर आक्रमण किया। इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी और आम नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। राम जन्मभूमि एक बार फिर हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी।

जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप "गज शहीदा" के नाम से प्रसिद्ध है, और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।

शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला। बहुत दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था।

औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत, पुष्प और जल चढाती रहती थी। 

नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजपूत राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये, जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं। 

लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की "लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी, पर कट्टरपंथी मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।"
"लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62"

नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये।

परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ। 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी और राम जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया।

इस संग्राम मे भीती, हंसवर, मकरही, खजुरहट, दीयरा, अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे।

हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और उनहे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर पुनः कब्जा कर लिया।

मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः राम जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। राम जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त फिर से प्रवाहित होने लगा।

नावाब वाजिदअली शाह के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया। फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा..
"इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खून खराबा हुआ। दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।"

क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली। मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया। मगर इस हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई।

अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था। इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू-मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया।

चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया॥ जिसमे पुनः रामलला की स्थापना की गयी। कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और उन्होंने एक भारी सेना के साथ आक्रमण किया व कालांतर में राम जन्मभूमि फिर से हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी। राम जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त फिर से प्रवाहित हुआ।

सन 1857 की क्रांति मे बहादुर शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ राम जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया। हिन्दू-मुस्लिम एकता का ये सबसे बड़ा और महान उदाहरण था। पर उस वक्त तक अंग्रेजों ने मुगलों को उखाड़ कर भारत के ज्यादातर हिस्सों पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। फिर 1857 की महान क्रांति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने भारत पर अपना अधिकार जमाए रखने की नीयत से हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने का निर्णय लिया, क्योंकि अंगेज जानते थे कि अगर हिन्दू-मुसलमान एक हो गए तो वो कभी भी भारत पर राज नही कर सकते हैं। 

इसलिए अंग्रेजों ने "फूट डालो और राज करो" की अपनी नीति पर काम करते हुए, 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ पर बाबा रामचरण दास और मौलवी आमिर अली, दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया। पर जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को भी कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया और इसके बाद अपनी हिन्दू-मुसलमानों के बीच "फुट डालो और राज करो" कि नीति पर काम करना शुरू कर दिया जो अन्तः हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बटवारे का कारण बना व आज तक राम जन्मभूमि संघर्ष के रूप में कायम रहा।

इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण राम जन्मभूमि के उद्धार का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया।

आज़ादी के बाद कांग्रेस सरकार ने भी अंग्रेजों का बनाया फार्मूला ..... हिन्दू-मुसलमान में "फूट डालो और राज करो" जारी रखा और उसका नतीजा ये हैं कि सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने भी राम जन्मभूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ा। मामला कोर्ट में चलता रहा। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते थे, ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें नीचा दिखाया जा सके।

जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन ही मानते हैं। 

गोधरा कांड
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गोधरा (गुजरात) में अब से लगभग18 साल पहले गुजरात के गोधरा स्टेशन से कुछ ही दूरी सी फालिया पर खड़ी साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन की बोगी एस-6 में बैठे 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया था। जिनमें महिलाएं-बच्चे भी शामिल थे। फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की रिपोर्ट में बताया गया था कि 60 लीटर तरल ज्वलनशील पदार्थ बोगी में डाला गया था। लगभग 2 हजार मुस्लिम लोगों की भीड़ ने ट्रेन को घेर लिया था। रिपोर्ट के अनुसार ट्रेन पर पथराव किया गया था ताकि कोई बाहर न आ पाए। 27 फरवरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती ट्रेन के एस-6 कोच में मुस्लिम भीड़ द्वारा आग लगाए जाने के बाद 59 कारसेवकों की मौत हो गई। इस मामले में 1500 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई। 28 फरवरी 2002 को गुजरात के कई इलाकों में दंगा भड़का जिसमें 1200 से अधिक लोग मारे गए। मारे गए लोगों में ज्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे।

★बस अब बस .... मेरी अपने सभी मुसलमान भाइयों और बहनों से हाथ जोड़कर ये विनती हैं कि अब इस झगड़े को खत्म करें। अयोध्या में हिन्दुओं को रामजन्म भूमि पर मन्दिर बनवाने में अपना सहयोग दे। हिन्दू-मुसलमान भाईचारे की एक नई मिसाल पेश करे।★

अन्तिम बलिदान
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6 दिसम्बर – गिरा था वो ढांचा। इस दिन ने इतिहास को पलट कर और बदल कर रख दिया था.. 

श्रीराम मन्दिर को बाबर के सेनापति मीर बाकी ने 1528 ई. में गिराकर वहाँ राम मन्दिर के मलबे से एक मस्जिदनुमा ढाँचा खड़ा कर दिया। इसके बाद से हिन्दू समाज एक दिन भी चुप नहीं बैठा। वह लगातार इस स्थान को पाने के लिए संघर्ष करता रहा।  23 दिसम्बर, 1949 को हिन्दुओं ने वहाँ रामलला की मूर्ति स्थापित कर पूजन एवं अखण्ड कीर्तन शुरू कर दिया। ‘विश्व हिन्दू परिषद्’ द्वारा इस विषय को अपने हाथ में लिया गया।

विश्व हिन्दू परिषद ने लोकतान्त्रिक रीति से जनजागृति के लिए श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन कर 1984 में श्री रामजानकी रथयात्रा निकाली, जो सीतामढ़ी से प्रारम्भ होकर अयोध्या पहुँची। इसके बाद हिन्दू नेताओं ने शासन से कहा कि श्री रामजन्मभूमि मन्दिर पर लगे अवैध ताले को खोला जाए। न्यायालय के आदेश से 1 फरवरी, 1986 को ताला खुल गया।  इसके बाद वहाँ भव्य मन्दिर बनाने के लिए 1989 में देश भर से श्रीराम शिलाओं को पूजित कर अयोध्या लाया गया और बड़ी धूमधाम से 9 नवम्बर, 1989 को श्रीराम मन्दिर का शिलान्यास कर दिया गया। जनता के दबाव के आगे प्रदेश और केन्द्र शासन को झुकना पड़ा।

पर मन्दिर निर्माण तब तक सम्भव नहीं था, जब तक वहाँ खड़ा ढांँचा ना हटे। हिन्दू नेताओं ने कहा कि यदि मुसलमानों को इस ढाँचे से मोह है, तो वैज्ञानिक विधि से इसे स्थानान्तरित कर दिया जाए; पर कांग्रेस शासन मुस्लिम वोटों के लालच से बँधा था। वह हर बार न्यायालय की दुहाई देता रहा। विहिप का तर्क था कि आस्था के विषय का निर्णय न्यायालय नहीं कर सकता। शासन की हठधर्मी देखकर हिन्दू समाज ने आन्दोलन और तीव्र कर दिया।

इसके अन्तर्गत 1990 में वहाँ कारसेवा का निर्णय किया गया। तब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी। उन्होेंने घोषणा कर दी कि बाबरी परिसर में एक परिन्दा तक पर नहीं मार सकता; पर हिन्दू युवकों ने शौर्य दिखाते हुए 29 अक्तूबर को गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। बौखला कर 2 नवम्बर को मुलायम सिंह ने गोली चलवा दी, जिसमें कोलकाता के दो सगे भाई राम और शरद कोठारी सहित सैकड़ों कारसेवकों का बलिदान हुआ। हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक राम मंदिर के मलबे से बने ढांचे को ध्वस्त कर दिया। लेकिन २1 नवम्बर १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। राम जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त फिर से प्रवाहित हुआ।

मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव सरकार ने मृतकों की असली संख्या बड़ी मक्कारी से छिपायी, परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू नदी तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था। 

४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया।

परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं जातिवाद में बटे होने के कारण हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में ही विराजमान रहे।

जिस राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया था, कुछ हिन्दू बेशर्मी से इसे "एक विवादित स्थल" कहते रहे। कुछ बेशर्म हिन्दू कहते थे कि यहां एक स्मारक या संग्रालय बना देना चाहिए। कुछ बेशर्म हिन्दू कहते थे कि यहां सर्वधर्म स्थल बना देना चाहिये। आदि-आदि।

मगर हमारे महान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रयासों व माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए ऐतिहासिक फैसले से राम जन्मभूमि पर राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया और अब श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में दिनांक 5 अगस्त, 2020 के पावन दिवस पर दोपहर 12 बजकर 15 मिनट 15 सैकेंड पर हमारे महान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा शुद्ध चाँदी की ईंट रख कर भूमि पुजन किया जाएगा व उसके बाद भव्य श्रीराम मंदिर की शुरुआत होगी। 

आज उन सभी ज्ञात-अज्ञात वीरों को, बलिदानियों को बारम्बार श्रद्धांजलि जिन्होंने श्रीराम के नाम पर अपने जीवन को सदा सदा के लिए बलिदान कर दिया और श्रीराम के चरणों मे अनन्त काल के लिए स्थान पाया .. हम देशवासी उन सभी श्रीराम भक्तों की गौरवगाथा को सदा-सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेते है.. 

"जय श्री राम"
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी