बौद्धिक योद्धा देवेन्द्र स्वरूपजी

30 मार्च/जन्म-दिवस
बौद्धिक योद्धा देवेन्द्र स्वरूपजी

बौद्धिक जगत में संघ और हिन्दुत्व के विचार को प्रखरता से रखने वाले देवेन्द्र स्वरूपजी का जन्म 30 मार्च, 1926 को उ.प्र. में मुरादाबाद के पास कांठ नामक कस्बे में हुआ था। कांठ और चंदौसी के बाद उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से बी.एस-सी. किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी होने के कारण वे दो बार विद्यालय से निष्कासित किये गये। 1947 से 1960 तक वे संघ के प्रचारक तथा 1948 के प्रतिबंध काल में छह माह जेल में रहे।

बौद्धिक प्राणी होने के कारण संघ की योजना से 1958 में वे लखनऊ से प्रकाशित साप्ताहिक पांचजन्य के संपादक बने। लखनऊ वि.वि. से इतिहास में एम.ए. कर 1964 में वे डी.ए.वी (पी.जी) काॅलिज, दिल्ली में इतिहास के प्राध्यापक हो गये। 1966-67 में वे अ.भा.विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष तथा 1968 से 72 तक अध्यापक के साथ पांचजन्य के अवैतनिक संपादक भी रहे। आपातकाल में वे एक बार फिर जेल गये। 1980 से 94 तक वे दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक तथा फिर उपाध्यक्ष रहे। वहां से हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘मंथन’ का भी उन्होंने संपादन किया। इतिहासज्ञ होने के नाते वे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से भी जुड़े रहे।

संघ साहित्य के निर्माण में देवेन्द्रजी ने बहुत समय लगाया। हमारे रज्जू भैया, राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख, सभ्यताओं के संघर्ष में भारत कहां, अखंड भारत, गांधीजी: हिन्द स्वराज से नेहरू तक, संस्कृति एक: नाम-रूप अनेक, अयोध्या का सच, संघ: बीज से वृक्ष, संघ: राजनीति और मीडिया, जातिविहीन समाज का सपना, राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का इतिहास, भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि आदि उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। इसके साथ ही सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं तथा स्मारिकाओं में प्रकाशित हजारों लेख तो हैं ही।

राममंदिर आंदोलन के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से वामपंथी खड़े होते थे। उनके सामने तथ्य और तर्कों से लैस देवेन्द्रजी की टीम होती थी। अतः हर बार विपक्षी भाग खड़े होते थे। शासकीय वार्ताओं से लेकर न्यायालय तक में मंदिर पक्ष को ऐतिहासिक तथ्य उन्होंने ही उपलब्ध कराये। 1991 में अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्त होकर वे पूरी तरह लिखने-पढ़ने में ही लग गये।

देवेन्द्रजी ने आजीवन सदा सत्य ही लिखा। इसीलिए पांचजन्य में पाठक सबसे पहले उनका ‘मंथन’ नामक स्तम्भ ही पढ़ते थे। सुदर्शनजी ने 1990 में बुद्धिजीवियों को एकत्र करने का ‘प्रज्ञा प्रवाह’ नामक कार्य शुरू किया। अब यह काम पूरे देश में चल रहा है। दिल्ली में देवेन्द्रजी इसके सूत्रधार थे। सीताराम गोयल, रामस्वरूपजी तथा गिरिलाल जैन आदि इसी से संपर्क में आये।

बौद्धिक योद्धा होते हुए भी सादगी एवं विनम्रता उनकी बड़ी विशेषता थी। वे पद, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से सदा दूर रहते थे। लखनऊ में वे पहला ‘वचनेश त्रिपाठी स्मृति व्याख्यान’ देने आये। वहां वे इस बात से नाराज हुए कि उन्हें संघ कार्यालय की बजाय होटल में क्यों ठहराया गया ? आयोजकों के बहुत आग्रह पर उन्होंने केवल मार्गव्यय स्वीकार किया, मानदेय नहीं।

दिल्ली में वे मयूर विहार के सहयोग अपार्टमेंट में सबसे ऊंची मंजिल वाले घर में रहते थे। वहां छत पर उनके निजी पुस्तकालय में हजारों पुस्तकें थीं। किसी भी नयी महत्वपूर्ण पुस्तक के आते ही वे उसे खरीद लेते थे। उनका हर कमरा, यहां तक की सीढि़यां भी किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से भरी रहती थी। ताजा खबरों के लिए वे प्रतिदिन 12-15 अखबार भी पढ़ते थे।

वयोवृद्ध होने पर वे अपने बेटे के पास भिवाड़ी (राजस्थान) चले गये। मकर संक्रांति (14 जनवरी, 2019) को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देहदान कर दी गयी। शासन ने उनके बौद्धिक अवदान के लिए उन्हें मृत्योपरांत ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया।

शत–शत नमन करूं मैं आपको....💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

#HamaraAppNaMoApp

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