वीरांगना झलकारी बाई
वीरांगना झलकारी बाई
~~~~~~~~~~~~
"जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी",
इन्हें कहते हैं दूसरी रानी लक्ष्मीबाई.....
देश के लिए मर-मिटने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम हर किसी के दिल में बसा है। कोई अगर भुलाना भी चाहे तब भी भारत माँ की इस महान बेटी को नहीं भुला सकता। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और बेटी थी, जिसके सर पर ना रानी का ताज था और ना ही सत्ता पर। फिर भी अपनी मिट्टी के लिए वह जी-जान से लड़ी और इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी।
वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की!
वो थी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परछाई बन अंग्रेजों से लोहा लेने वाली, वीरांगना झलकारी बाई।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के पास के भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी।
उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिकाये। झलकारी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, पर फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कम नहीं थी। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी बहादुरी के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।
मेघवंशी समाज में जन्मी, झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया, तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
झलकारी जितनी बहादुर थी, उतने ही बहादुर सैनिक से उनका विवाह हुआ। यह वीर सैनिक था पूरन, जो झांसी की सेना में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्द था।
विवाह के बाद जब झलकारी झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की बहादुरी के किस्से सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी को तुरंत ही दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दे दिया।
झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पहले से ही इन कलाओं में कौशल झलकारी इतनी पारंगत हो गयी कि जल्द ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।
केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी ने व्यक्तिगत तौर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया। हमशक्ल होने के कारण कोई भी पहचान नहीं पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई। जिस युद्ध में झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई बनकर लड़ी थीं, उसी युद्ध में उनके पति शहीद हुए थे। बावजूद इसके उन्होंने पति के शोक की जगह राज्य की सुरक्षा और अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी।
युद्ध के दौरान झलकारी बाई
~~~~~~~~~~~~~~
1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।
जल्द ही अंग्रेजी फ़ौज झाँसी में घुस गयी और रानी अपने लोगों को बचाने के लिए जी-जान से लड़ने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें।
इसलिए कहा जाता है दूसरी लक्ष्मीबाई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इतिहासकारों के मुताबिक 23 मार्च 1858 को जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया था। ये 1857 के विद्रोह का दौर था। रानी लक्ष्मीबाई ने वीरतापूर्वक अपने 5000 सैनिकों के दल संग उस विशाल सेना का सामना किया। जल्द ही अंग्रेज सेना झाँसी में घुस गयी और लक्ष्मीबाई, झाँसी को बचाने के लिए उनका डटकर सामना कर रहीं थीं। इस दौरान झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया। खास बात ये है कि इसी युद्ध में उनके पति शहीद हो चुके थे। बावजूद उन्होंने पति का शोक मनाने की जगह राज्य और अपनी रानी के लिए लड़ने को प्राथमिकता दी थी।
इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया, ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें। इस तरह झलकारीबाई खुद रानी लक्ष्मीबाई बनकर लडती रहीं और जनरल रोज की सेना उनके झांसे में आकर उन पर प्रहार करने में लगी रही। काफी देर बाद उन्हें पता चला की वह रानी लक्ष्मीबाई नही हैं। झलकारी बाई की इस महानता को बुंदेलखंड में रानी लक्ष्मीबाई के बराबर सम्मान दिया जाता है। दलित के तौर पर उनकी महानता और हिम्मत ने उत्तर भारत में दलितों के जीवन पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला। उनकी मौत कैसे हुई थी, इतिहास में इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ब्रिटिश सेना द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई थी। वहीं कुछ जगहों पर जिक्र किया गया है कि वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुई थीं। कुछ जगहों पर अंग्रेजों द्वारा झलकारीबाई को तोप से उड़ाने का जिक्र किया गया है।
एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है।
पर यह झलकारी की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को ताकत जुटाने के लिए और समय मिल जाये। जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था......
“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा।”
स्त्रोत
कुछ लोगों का कहना हैं कि युद्ध के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था और फिर उनकी मृत्यु 1890 में हुई। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी बाई को युद्ध के दौरान 4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।
झलकारी बाई के सम्मान में पोस्टल स्टैम्प
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इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस बेटी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला। पर उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है। झलकारी बाई की बहादुरी और इतिहास में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया था। इसमें झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार दिखती हैं। उनके चित्र वाला टेलीग्राम स्टांप भी जारी किया गया था। भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में झांसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है। अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की है। उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी है।
साहित्य व उपन्यासों में लक्ष्मीबाई की तरह है जिक्र
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही झलकारीबाई का भी साहित्य, उपन्यासों और कविताओं में जिक्र किया गया है। 1951 में बीएल वर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में झलकारी बाई को विशेष स्थान दिया गया है। रामचंद्र हेरन के उपन्यास माटी में झलकारीबाई को उदात्त और वीर शहीद कहा गया है। भवानी शंकर विशारद ने 1964 में झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र लिखा था। इसका बाद कई साहित्यकारों और लेखकों ने झलकारीबाई की बहादुरी की तुलना रानी लक्ष्मीबाई से की है। लक्ष्मीबाई पर लिखी गई कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ की तर्ज पर कवि मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है.....
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"जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी",
इन्हें कहते हैं दूसरी रानी लक्ष्मीबाई.....
देश के लिए मर-मिटने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम हर किसी के दिल में बसा है। कोई अगर भुलाना भी चाहे तब भी भारत माँ की इस महान बेटी को नहीं भुला सकता। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और बेटी थी, जिसके सर पर ना रानी का ताज था और ना ही सत्ता पर। फिर भी अपनी मिट्टी के लिए वह जी-जान से लड़ी और इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी।
वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की!
वो थी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परछाई बन अंग्रेजों से लोहा लेने वाली, वीरांगना झलकारी बाई।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के पास के भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी।
उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिकाये। झलकारी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, पर फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कम नहीं थी। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी बहादुरी के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।
मेघवंशी समाज में जन्मी, झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया, तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
झलकारी जितनी बहादुर थी, उतने ही बहादुर सैनिक से उनका विवाह हुआ। यह वीर सैनिक था पूरन, जो झांसी की सेना में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्द था।
विवाह के बाद जब झलकारी झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की बहादुरी के किस्से सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी को तुरंत ही दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दे दिया।
झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पहले से ही इन कलाओं में कौशल झलकारी इतनी पारंगत हो गयी कि जल्द ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।
केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी ने व्यक्तिगत तौर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया। हमशक्ल होने के कारण कोई भी पहचान नहीं पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई। जिस युद्ध में झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई बनकर लड़ी थीं, उसी युद्ध में उनके पति शहीद हुए थे। बावजूद इसके उन्होंने पति के शोक की जगह राज्य की सुरक्षा और अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी।
युद्ध के दौरान झलकारी बाई
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1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।
जल्द ही अंग्रेजी फ़ौज झाँसी में घुस गयी और रानी अपने लोगों को बचाने के लिए जी-जान से लड़ने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें।
इसलिए कहा जाता है दूसरी लक्ष्मीबाई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इतिहासकारों के मुताबिक 23 मार्च 1858 को जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया था। ये 1857 के विद्रोह का दौर था। रानी लक्ष्मीबाई ने वीरतापूर्वक अपने 5000 सैनिकों के दल संग उस विशाल सेना का सामना किया। जल्द ही अंग्रेज सेना झाँसी में घुस गयी और लक्ष्मीबाई, झाँसी को बचाने के लिए उनका डटकर सामना कर रहीं थीं। इस दौरान झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया। खास बात ये है कि इसी युद्ध में उनके पति शहीद हो चुके थे। बावजूद उन्होंने पति का शोक मनाने की जगह राज्य और अपनी रानी के लिए लड़ने को प्राथमिकता दी थी।
इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया, ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें। इस तरह झलकारीबाई खुद रानी लक्ष्मीबाई बनकर लडती रहीं और जनरल रोज की सेना उनके झांसे में आकर उन पर प्रहार करने में लगी रही। काफी देर बाद उन्हें पता चला की वह रानी लक्ष्मीबाई नही हैं। झलकारी बाई की इस महानता को बुंदेलखंड में रानी लक्ष्मीबाई के बराबर सम्मान दिया जाता है। दलित के तौर पर उनकी महानता और हिम्मत ने उत्तर भारत में दलितों के जीवन पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला। उनकी मौत कैसे हुई थी, इतिहास में इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ब्रिटिश सेना द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई थी। वहीं कुछ जगहों पर जिक्र किया गया है कि वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुई थीं। कुछ जगहों पर अंग्रेजों द्वारा झलकारीबाई को तोप से उड़ाने का जिक्र किया गया है।
एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है।
पर यह झलकारी की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को ताकत जुटाने के लिए और समय मिल जाये। जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था......
“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा।”
स्त्रोत
कुछ लोगों का कहना हैं कि युद्ध के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था और फिर उनकी मृत्यु 1890 में हुई। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी बाई को युद्ध के दौरान 4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।
झलकारी बाई के सम्मान में पोस्टल स्टैम्प
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस बेटी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला। पर उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है। झलकारी बाई की बहादुरी और इतिहास में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया था। इसमें झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार दिखती हैं। उनके चित्र वाला टेलीग्राम स्टांप भी जारी किया गया था। भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में झांसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है। अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की है। उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी है।
साहित्य व उपन्यासों में लक्ष्मीबाई की तरह है जिक्र
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही झलकारीबाई का भी साहित्य, उपन्यासों और कविताओं में जिक्र किया गया है। 1951 में बीएल वर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में झलकारी बाई को विशेष स्थान दिया गया है। रामचंद्र हेरन के उपन्यास माटी में झलकारीबाई को उदात्त और वीर शहीद कहा गया है। भवानी शंकर विशारद ने 1964 में झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र लिखा था। इसका बाद कई साहित्यकारों और लेखकों ने झलकारीबाई की बहादुरी की तुलना रानी लक्ष्मीबाई से की है। लक्ष्मीबाई पर लिखी गई कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ की तर्ज पर कवि मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है.....
“जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”
एक अन्य कवि प्रदीप ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था.......
“झलकारी बाई”
झलकारी की झलक देखकर ,
वो बुन्देले भी हाँफ गये……
जब उतरी वो समरभूमि में ,
गौरे भी थर-थर काँप गये ||
जमुना-कोख से पैदा हुई ,
भोजला गाँव में बड़ी हुई |
जब आया संकट, झाँसी पर ,
लक्ष्मी के आगे खड़ी हुई ||
रानी को रण से भेज दिया,
निज बौद्धिक-बल के बूते से |
दुश्मन को धूल चटाई थी ,
अपने पैरों के जूते से ||
समर में थी वो रूकी हुई…
अंग्रेज रोज को डाटा था |
निज अश्व हुआ जब जख्मी तो,
कृपाण से दुश्मन काटा था ||
वो अबला थी ,पर यौद्धा थी ,
और वीरांगना कहलाई |
मनु के वेश में लड़ी वो तब ,
फिर लौट के न वो घर आई ||
रानी झाँसी को बचा गई ,
ऐसी नारी थी झलकारी….
“प्रदीप” कवि का प्रणाम उन्हें
है धन्य झलक की महतारी ||
भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए अपना सर्वोच्च न्योछावर करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का देश सदैव ऋणी रहेगा!
शत-शत नमन करूँ मैं आपको ......💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP
वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”
एक अन्य कवि प्रदीप ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था.......
“झलकारी बाई”
झलकारी की झलक देखकर ,
वो बुन्देले भी हाँफ गये……
जब उतरी वो समरभूमि में ,
गौरे भी थर-थर काँप गये ||
जमुना-कोख से पैदा हुई ,
भोजला गाँव में बड़ी हुई |
जब आया संकट, झाँसी पर ,
लक्ष्मी के आगे खड़ी हुई ||
रानी को रण से भेज दिया,
निज बौद्धिक-बल के बूते से |
दुश्मन को धूल चटाई थी ,
अपने पैरों के जूते से ||
समर में थी वो रूकी हुई…
अंग्रेज रोज को डाटा था |
निज अश्व हुआ जब जख्मी तो,
कृपाण से दुश्मन काटा था ||
वो अबला थी ,पर यौद्धा थी ,
और वीरांगना कहलाई |
मनु के वेश में लड़ी वो तब ,
फिर लौट के न वो घर आई ||
रानी झाँसी को बचा गई ,
ऐसी नारी थी झलकारी….
“प्रदीप” कवि का प्रणाम उन्हें
है धन्य झलक की महतारी ||
भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए अपना सर्वोच्च न्योछावर करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का देश सदैव ऋणी रहेगा!
शत-शत नमन करूँ मैं आपको ......💐💐💐💐
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