गुरु गोबिंद सिंह जी
गुरु गोबिंद सिंह जी
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सिक्खों के दसवे गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) की इस वर्ष 352वी जयंती मनाई जा रही है | योद्धा , कवि और विचारक गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पन्थ के स्थापना की थी | उन्होंने मुगल बादशाह के साथ कई युद्ध किये और ज्यादातर में में विजय हासिल की | उनके पिता सिक्ख धर्म के नौवे गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी देवी थी | उन्होंने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में एक बड़ी सभा का आयोजन कर खालसा पंथ की स्थापना की थी |
नौ वर्ष की उम्र में सम्भाली गद्दी
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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर 666 ईस्वी में पटना साहिब में श्री तेगबहादुर जी जे घर माता गुजरी जी की कोख से हुआ। सिखों के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह का जन्म बिहार के पटना साहिब में 1666-1708 के बीच हुआ था। जूूूूलियन कैलेंडर के अनुसार गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में 22 दिसंबर 1666 को हुआ था। लेकिन वर्तमान समय में जूलियन कैलेंडर मान्य नहीं है।
वहीं ग्रेगोरियन कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद का जन्म 1 जनवरी 1667 को हुआ था। लेकिन इन दोनों से इतर हिन्दू कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष, शुक्लपक्ष सप्तमी 1723 विक्रम संवत को हुआ था। वहीं नानकशाही कैलेंडर के अस्तित्व में आने के बाद गुरु गोविंद सिंह के जन्म को पहले 6 जनवरी माना गया और फिर बाद में इसे बदलकर 5 जनवरी कर दिया गया. लेकिन इसे लेकर भी अलग-अलग विचारधारा सामने आने लगी।
गुरु गोविंद सिंह के जन्म सिख समुदाय में गुरु गोविंद सिंह के जन्मदिन को गुरु गोविंद जयंती या गुरु पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
श्री तेगबहादुर जी उस समय सिखी के प्रचार के लिए देश का भ्रमण कर रहे थे | उन्होंने अपने परिवार को पटना साहिब में ठहराया तथा स्वयं असम की ओर चले गये | गुरु जी जब बांग्लादेश पहुचे तो तो उनको गुरु गोबिंद सिंह जी जन्म की सुचना मिली। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की कम उम्र ही थी जब श्री तेगबहादुर जी ने श्री आनन्दपुर साहिब आकर परिवार को बुला लिया।
जिस समय उनका जन्म हुआ तब यहा मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था। उसकी शाही सेना भारतीय जनता पर बहुत जुल्म किया करती थी और उसने देश भर में अपने सभी गर्वनरो को आदेश जारी कर दिया कि हिन्दुओ के मन्दिर गिरा दे। कश्मीर का गर्वनर इफ्तिखार खान था जिसने बादशाह के आदेशो को लागू करने की ठान ली। कश्मीर में मन्दिर गिरने लगे और हिन्दुओ को मुसलमान बनाया जाने लगा।
ऐसी नाजुक स्थिति में जब कश्मीरी पंडितो के एक दल ने इनके पिता गुरु तेग बहादुर से सहायता की याचना की तो पुत्र गोबिंद ने अपने पिता से कहा “पिताजी धर्म की रक्षा के लिए आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है ”। इस तरह हिंदुस्तान में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए श्री गोविन्द सिंह जी ने बाल उम्र में ही अपने पिताजी को दिल्ली की तरफ चलाया। बाद में औरंगजेब के आदेश पर श्री तेगबहादुर जी को शहीद कर दिया गया।
गुरु जी की शहीदी उपरान्त श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने सभी सिखों को शस्त्रधारण करने तथा बढिया घोड़े रखने के लिए उसी तरह आदेश जारी कर दिया, जिस तरह श्री अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद श्री गुरु हरगोविन्द साहिब जी ने किया था। पिता गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद गोबिंद राय को नौ वर्ष की आयु में 11 नवम्बर 1675 को विधिवत रूप से गद्दी पर बैठाया गया। इसके बाद सबसे पहले गोबिंद राय ने अपने नाम के साथ सिंह जोड़ा और समस्त सिखों को अपने नाम के साथ सिंह जोड़ने को कहा और वो गोबिंद सिंह बन गए।
खालसा पन्थ की स्थापना
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गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) द्वारा 1699 में खालसा पन्थ की स्थापना की गयी | खालसा शब्द शुद्धता का पर्याय है अर्थात जो मन, वचन और कर्म से शुद्द हो और समाज के प्रति समपर्ण का भाव रखता हो, वही खालसा पन्थ को स्वीकार कर सकता है। उन्होंने पंज प्यारे की नई बात कही। पंज प्यारे देश के विभिन्न भागो से आये समाज के अलग अलग जाति और सम्प्रदाय के पांच बहादुर लोग थे जिन्हें एक ही कटोरे से प्रसाद पिलाकर सिखों के बीच समानता और आत्मसम्मान की भावना को जागृत किया और उन्हें एकता के सूत्र में बाधने की कोशिश की। उन्होंने कहा “मनुष्य की जाति सभी एक है “।
श्री आनन्दपुर साहिब में रहते हुए पहाडी राजाओ ने गुरूजी से लड़ाई जारी रखी पर जीत हमेशा गुरूजी की होती रही। 1704 ईस्वी में जब गुरूजी ने श्री आनन्दपुर साहिब का किला छोड़ दिया जिस कारण गुरूजी का सारा परिवार बिछड़ गया। चमकौर साहिब की एक कच्ची गली में गुरूजी ने अपने 40 सिंहो सहित 10हजार मुगल सेना का सामना किया | यहा गुरूजी के दो बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह तथा बाबा झुजार सिंह शहीद हुए |
गुरुजी के छोटे साहिबजादो बाबा जोरावर सिंह तथा बाबा फतेह सिंह सिंह जी को सरहिंद के वजीर खान के आदेश से जिन्दा ही दीवारों में चुनवा दिया। बाद में बाबा चंदा सिंह ने नांदेड से पंजाब आकर साहिबजादो की शहीदी का बदला लिया। गुरूजी ने साबो की तलवंडी में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पुन: सम्पादन किया तथा अपने पिता श्री तेग बहादुर जी की वाणी को अलग अलग रागों में दर्ज किया |
गुरु गोबिंद सिंह के अंतिम दिन
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1707 ईस्वी में करीब गोबिंद सिंह महाराष्ट्र के नांदेड चले गये जहा उन्होंने माधो दास वैरागी को अमृत संचार कर बाबा बन्दा सिंह बहादुर बनाया तथा जुल्म का सामना करने के लिए पंजाब की तरफ भेजा | नांदेड में 2 विश्वासघाती पठानों ने गुरूजी पर छुरे से वार कर दिया | गुरूजी ने अपनी तलवार से एक पठान को तो मौके पर ही मार दिया जबकि दूसरा सिखों के हाथो मारा गया | गोबिंद सिंह जी (Guru Gobind Singh) के जख्म काफी गहरे थे तथा 7 अक्टूबर 1708 ईस्वी को उनकी ज्योत ज्योत में समा गई। वो गुरु ग्रन्थ साहिब की को गुरुगद्दी दे गये।
त्याग की भावना से पूर्ण
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वह संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषा के जानकार थे। वे कवि भी थे जिन्होंने पंजाबी भाषा में तो सिर्फ एक रचना “चंडी दीवार ” लिखी शेष कई रचनाये हिंदी भाषा में रची। महत्वपूर्ण रचनाये जफरनामा और विचित्र नाटक है। इन्होने जीवन में अनेक लड़ाईया लड़ी, इनमे भंगानी का युद्ध, चमकौर का युद्ध, मुक्तसर का युद्ध और आनन्द साहिब का युद्ध प्रसिद्ध है। चमकौर युद्ध में गुरूजी के 40 सिखों की फ़ौज ने मुगल शाही सेना के दस हजार सैनिको से दिलेरी के साथ टक्कर ली थी | इसमें दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह और झुजार सिंह शहीद हो गये थे। बाद में मौका मिलने पर दुश्मनों ने उनके दो और पुत्रो को भी दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था। इसी दौरान माता गुजरी देवी का भी देहांत हो गया।
साहिबजादो के बलिदान का दिवस : वीर बाल दिवस
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20 से 27 दिसम्बर का वह सप्ताह, जब गुरुगोविंद सिंह के परिवार ने राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पित किया ......
"चार साहिबज़ादे " शब्द का प्रयोग सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों - साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह, व फतेह सिंह को सामूहिक रूप से संबोधित करने हेतु किया जाता है।
छोटे साहिबजादे
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“निक्कियां जिंदां, वड्डा साका”.... गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को जब भी याद किया जाता है तो सिख संगत के मुख से यह लफ्ज़ ही बयां होते हैं।
गुरु गोविंद सिंह, जो कि सिखों के दसवें गुरु थे, उन्हें वर्ष 1704 में 20 दिसंबर को आनंदपुर साहिब किले को अचानक से बेहद कडक़ड़ाती ठंड में छोडऩा पड़ा था, क्योंकि मुगल सेना ने इस पर आक्रमण कर दिया था। गुरु गोविंद सिंह चाहते थे कि वे किले में ही रुक कर आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ा दें, लेकिन उनके दल में जो लोग शामिल थे, उन्होंने खतरे को भांप लिया था। ऐसे में उन्होंने गुरु गोविंद सिंह से आग्रह किया कि इस वक्त यहां से निकल जाना ही उचित होगा। गुरु गोविंद सिंह जी ने आखिरकार उनकी बात मान ली और आनंदपुर किले को छोडक़र वे अपने परिवार के साथ वहां से निकल गए।
बिछड़ गया गुरु गोविंद सिंह जी का परिवार :
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सरसा नदी को जब वे पार कर रहे थे, तो इस दौरान नदी में पानी का बहाव बहुत तेज होने की वजह से गुरु गोविंद सिंह के परिवार के सदस्य एक-दूसरे से बिछड़ गए थे। गुरु गोविंद सिंह के दो बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह उनके साथ ही रह गए और वे उनके साथ चमकौर पहुंच गए थे। वहीं, दूसरी ओर गुरु गोविंद सिंह की माता गुजरी देवी और उनके दो बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह अलग हो गए थे। गुरु गोविंद सिंह का सेवक गंगू इन्हीं लोगों के साथ में था। उसने माता गुजरी और गुरु गोविंद सिंह के दोनों बेटों को उनके परिवार से मिलाने का भरोसा दिलाया और उन्हें अपने घर लेकर चला गया। गंगू को सोने के मोहरों का लोभ हो गया था। इस वजह से उसने वजीर खां को इनके बारे में खबर कर दी।
चमकौर का युद्ध
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1704 में 21, 22, और 23 दिसम्बर को गुरु गोविंद सिंह और मुगलों की सेना के बीच पंजाब के चमकौर में लड़ा गया था। गुरु गोबिंद सिंह जी 20 दिसम्बर की रात आनंद पुर साहिब छोड़ कर 21 दिसम्बर की शाम को चमकौर पहुंचे थे और उनके पीछे मुगलों की एक विशाल सेना जिसका नेतृत्व वजीर खां कर रहा था, भी 22 दिसम्बर की सुबह तक चमकौर पहुँच गयी थी।
वजीर खां गुरु गोबिंद सिंह को जीवित या मृत पकड़ना चाहता था। चमकौर के इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह की सेना में केवल उनके दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह एवं जुझार सिंह और 40 अन्य सिंह थे। इन 43 लोगों ने मिलकर ही वजीर खां की आधी से ज्यादा सेना का विनाश कर दिया था। वजीर खान गुरु गोविंद सिंह को पकड़ने में असफल रहा, लेकिन इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों साहिबज़ादा अजीत सिंह व साहिबज़ादा जुझार सिंह और 40 सिंह भी शहीद हो गए।
गुरु गोविंद सिंह ने इस युद्ध का वर्णन ज़फ़रनामा में किया है। उन्होंने बताया है कि जब वे सरसा नदी को पार कर चमकौर पहुंचे तो किस तरह मुगलों ने उन पर हमला किया।
बीबी हरशरण कौर जी
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चमकौर की लड़ाई की अंतिम शहीद
चमकौर की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह जी और 40 भूखे सिंह मुगल सेना से लड़ते हैं। चमकौर के मिट्टी के किले में हुई लड़ाई 72 घंटों तक चली और इसमें कई मुगल सैनिकों और दो साहिबज़ादों के साथ गुरु गोबिंद सिंह जी के 36 साथियों की मृत्यु हो गई। सैकड़ों हजारों की सेना से लड़ते हुए, गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया। गुरु जी, पंथ खालसा (पुंज प्यारे के रूप में) के आदेशों का पालन करते हुए, भाई संगत सिंह जी को पहनने के लिए अपने कपड़े देने के बाद, भाई दया सिंह, भाई मान सिंह और एक अन्य सिंह के साथ किला छोड़ गए। केवल भाई संगत सिंह और भाई संत सिंह ने अंत तक लड़ाई लड़ी। वे भी शहीद हो गये। भाई संगत सिंह पर गुरु जी के कपड़े देखकर मुगल बहुत खुश हुए और उन्हें गुरु गोबिंद सिंह समझकर उनका सिर काट दिया और दिल्ली ले गए।
हर गाँव में यह घोषणा कर दी गई कि गुरु गोबिंद सिंह की हत्या कर दी गई है, “यहाँ देखो उनका कटा हुआ सिर! उनका परिवार भी ख़त्म हो गया है। उसके दो बेटे युद्ध में मारे गये और दो छोटे बेटे भी लावारिस मर जायेंगे। क्रांति को कुचल दिया गया है। चमकौर किले पर कोई भी ना जाए। किसी को भी मृत सिंहों का दाह संस्कार नहीं करना चाहिए।”
किले के चारों ओर कड़ा घेरा डाल दिया गया। जैसे-जैसे सैनिक गाँव-गाँव जाकर घोषणा कर रहे थे, लोग भयभीत होकर अपने-अपने घरों में दुबक रहे थे। हालाँकि, ख्रौंड गाँव में, गुरु गोबिंद सिंह की एक बेटी, बीबी हरशरण कौर ने शहीदों का अंतिम संस्कार करने के लिए अपनी माँ से अनुमति मांगी। उसकी बूढ़ी माँ ने उत्तर दिया, “बाहर घोर अँधेरा है और किले के चारों ओर सैनिक हैं, तुम पास भी कैसे जाओगे?”
यह सुनकर कलगीधर की शेरनी बेटी ने दृढ़ निश्चय के साथ उत्तर दिया “मैं सैनिकों से बचकर दाह संस्कार कर दूंगी और यदि जरूरत पड़ी तो लड़कर मर भी जाऊंगी।”
मां ने उसे हिम्मत दी और अपनी बेटी को गले लगाया और फिर दाह संस्कार के लिए मर्यादा का पालन करने के लिए समझाया। अरदास करने के बाद बीबी हरशरण कौर चमकौर किले के लिए रवाना हो गईं।
वह रणक्षेत्र जिसने लोहे को लोहे से टकराते देखा, हाथियों की चिंघाड़, खुरों की थिरकन और मार डालो की पुकार देखी।
कैप्चर!", अब अब पूरी तरह से चुप था और पूर्ण अंधकार में डूबा हुआ था। ऐसे में 16 साल की लड़की बीबी हरशरण कौर पहरेदारों से बचती हुई किले में पहुंच गयी। उसने देखा कि हर जगह शव पड़े हुए थे और सिख और मुगल के बीच अंतर करना बहुत मुश्किल था। उसे अभी भी विश्वास था और उसने कारा वाले हथियार और कचेरा वाले धड़ और लंबे केश वाले सिर ढूंढना शुरू कर दिया। जैसे ही उसे कोई शव मिलता, वह हर शहीद का चेहरा पोंछ देती। दोनों साहिबजादे और लगभग 30 शहीद मिल गए। उसने सभी शवों को एक जगह इकट्ठा किया और फिर वह लकड़ी इकट्ठा करने लगीं। भोर की रोशनी के डर से, बीबी हरशरण कौर ने बहुत तेजी से काम किया और जल्द ही सभी शवों के चारो तरफ एक चिता तैयार कर दी। फिर उसने आग जलाई। सभी शहीद सिंहों के शव उस चिता में जलने लगे।
आग की लपटें उठती देख सभी गार्ड चौंक गए और चिता की ओर बढ़े। आग की लपटों की रोशनी में बीबी हरशरण कौर चिता के पास बैठी नजर आईं। वह चुपचाप कीर्तन सोहिला का पाठ कर रही थी। पहरेदार हैरान और भ्रमित थे कि इतनी अंधेरी रात में एक अकेली महिला किले में कैसे आ सकती है। पहरेदारों ने ऊँचे स्वर में पूछा, “तुम कौन हो?”
बीबी जी: मैं गुरु गोबिंद सिंह जी की बेटी हूं।
अधिकारी: आप यहां क्या कर रहे हैं?
बीबी जी: मैं अपने शहीद भाइयों का दाह संस्कार कर रही हूं।
अधिकारी: क्या तुम्हें इस आदेश के बारे में नहीं पता कि यहां आना अपराध है?
बीबी जी: मुझे पता है।
अधिकारी: तो फिर आपने उस आदेश की अवहेलना क्यों की?
बीबी जी: झूठे राजा का आदेश सच्चे पातशाह
अधिकारी के आदेश के सामने नहीं टिकता।
मतलब?
बीबी जी: मतलब कि मेरे दिल में सिंहों के लिए सम्मान है और गुरु की कृपा से मैंने अपना कर्तव्य निभाया है। मुझे आपके राजा के आदेश की परवाह नहीं है।
बीबी हरशरण कौर के ऐसे कड़े जवाब सुनकर क्रोधित मुगल सैनिकों ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया और हमला कर दिया। बीबी जी ने अपना कृपाण उठाया और दृढ़ संकल्प के साथ मुकाबला किया। कई सैनिकों को मारने और अपंग करने के बाद बीबी हरशरण कौर घायल हो गईं और जमीन पर गिर गईं। कायर मुगलों के इन कायर और निर्दयी मुगल सिपाहियों ने बीबी हरशरण कौर को उठाकर चिता में डाल दिया और उन्हें जिंदा ही जला दिया।
अगले दिन किले के चारों ओर से घेरा हटा दिया गया क्योंकि यह स्पष्ट था कि साहिबज़ादों और अधिकांश शहीद सिंहों का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। फुलकियान परिवार के पूर्वजों, राम और त्रिलोका ने, जो भी सिंह बचे थे उनका अंतिम संस्कार किया। बीबी हरशरण कौर की कहानी तलवंडी साबो (दमदमा साहिब) में गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज तक पहुंची।
बेटी की शहादत की खबर सुनकर बूढ़ी मां ने अकाल पुरख का शुक्रिया अदा किया. उन्होंने कहा, "मेरी बेटी ने खुद को योग्य साबित किया है।" चमकौर शहीदों के दाह संस्कार की कहानी हमेशा सभी सिंहों और सिंहनियों के लिए प्रेरणा के चमकते सितारे के रूप में काम करेगी।
गिरफ्तार हो गए गुरु गोविंद सिंह के दो छोटे साहिबजादे :
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सरसा नदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी परिवार से जुदा हो रहे थे, तो एक ओर जहां बड़े साहिबजादे गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ ना कोई सैनिक था और ना ही कोई उम्मीद थी, जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते।
गंगू नौकर
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अचानक रास्ते में उन्हें गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं।
माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे
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माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए, लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोबिंद सिंह जी की माता और छोटे साहिबजादों के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की।
ठंडे बुर्ज में रखा
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खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया।
रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने ज़ोर से जयकारा लगा “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल”।
यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता, लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली।
दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’।
साहबजादे अपने निर्णय पर अटल रहे
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वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे।
मुगलों का कहर
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आखिर में वजीर खां द्वारा दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज़ भी आई।
ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादों के कुछ श्वास अभी बाकी थे, लेकिन ज़ालिम मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया।
माता गुजरी जी का निधन
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उधर दूसरी ओर साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और उनकी शहादत पर आँसू नहीं बहाए, क्योंकि उन्हें अपने बच्चों की शहादत पर गर्व था। पर हाय एक माँ का दिल..... 27 तारीख को माता ने भी अपने प्राण त्याग दिए।
दोनों साहबजादों ने खुशी-खुशी मौत स्वीकार कर ली लेकिन ज़ालिम मुगलों के आगे अपने घुटने नहीं टेके। लेकिन उनके इस बलिदान के बारे में सब लोग नहीं जानते थे। इसलिए उनकी शौर्य गाथा को याद रखने के लिए 26 दिसम्बर को हमारे महान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी व भारत सरकार द्वारा "वीर बाल दिवस" के रूप में मनाने की घोषणा की, ताकि लोग इन चारों वीर भाइयों के बलिदान को याद कर सके। गुरु गोविंद सिंह के पुत्रों के बलिदान से प्रेरित होकर लोग अपने धर्म के प्रति जागरूक हो सकेंगे।
मर्यादित आचरण की दी सीख
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गुरूजी की प्रतिभा, साहस से औरंगजेब तथा अन्य सूबेदार सदैव आतंकित रहते थे। मौका पाकर गुरु गोबिंद सिंह को सरहिंद के नवाब वजीरशाह ने धिखे से घायल कर डाला। महज 41 वर्ष की उम्र में जब उन्हें अनुमान हो गया था कि उनका अंतिम समय आ गया है तो उन्होंने सिख संगत को बुलाया और साथ में गुरु ग्रन्थ साहिब (सिक्खों की धार्मिक पुस्तक) लाने को कहा। फिर खालसा पन्थ के लोगो को सदा मर्यादित आचरण करने, देशप्रेम करने और दीन दुखियो की सहायता करने की सीख दी। उन्होंने कहा “संतो मेरे बाद अब कोई भी जीवित व्यक्ति इस गुरु की गद्दी पर विराजमान नही होगा, इस गुरु गद्दी पर गुरु ग्रन्थ साहिब विराजमान रहेंगे, अब आप लोग उन्ही से अपना मार्गदर्शन करना और उन्ही से आदेश प्राप्त करना”।
उदार हृदय के व्यक्ति
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शक्ति सम्पन्न व्यक्ति आमतौर पर अभिमानी हो जाता है लेकिन गुरु गोबिंद सिंह जी वीर होने के साथ ही उदार हृदय के व्यक्ति थे। सहृदयता इनमे बचपन से ही मौजूद थी। इनके बचपन की एक रोचक घटना है जो गुरु गोविन्द सिंह की उदारता और दया को दर्शाता है। गोबिंद एक बुढी औरत की सूत कातने के लिए रखी पुनिया बिखेर देते थे | इससे दुखी होकर वह गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी के पास शिकायत लेकर पहुच जाती। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती। माता गुजरी ने गोबिंद सिंह से पूछा “तुम बुढी स्त्री को परेशान क्यों करते हो ?” जवाब में गोबिंद सिंह जी ने कहा उसकी गरीबी दूर करने के लिए अगर मै उसे परेशान नही करूंगा तो तुम उसे पैसे कैसे दोगी ”। गोबिंद सिंह जी की यही उदारता बड़े होने पर भी बनी रही। मुगलों से युद्ध के दौरान इन्हें अपनी सन्तान को खोना पड़ा। इसके बावजूद भी अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को दिल्ली के तख्त पर बैठाने में इन्होने सहायता की।
जन्मस्थान पर बना गुरुद्वारा
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बचपन से ही बालक गोबिंद राय अन्य सभी बालको से अलग स्वभाव के थे। वे धनुष बाण, कृपाण, कटार, भाला, तलवार आदि हथियारों को खिलौना समझते है और कम उम्र में ही इस चलाने में दक्षता प्राप्त कर ली थी।
गुरु गोबिंद सिंह के बचपन का शुरुवाती हिस्सा इनके ननिहाल पटना में गुजरा। पटना में उनके जन्म स्थान पर गुरुद्वारा का निर्माण किया गया है। यह तख्त श्री हरमिंदर साहिब, पटना साहिब के नाम से मशहूर है सिक्खों के दसवे गुरु के जन्म स्थान के दर्शन करने के लिए पुरी देश दुनिया से श्रुधालू यहा आते है। इस गुरुद्वारा का निर्माण सिख राजवंश के पहले महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था। पहली बार इसका निर्माण 18वी शताब्दी में किया गया था।
शत-शत नमन करूँ मैं आपको......💐💐
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