वीर गोकुल सिंह जाट का बलिदान


वीर गोकुल सिंह जाट का बलिदान
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"जो देश अपने वीर और महान सपूतों को भूल जाता है, उस देश के आत्मसम्मान को हीनता की दीमक चट कर जाती है।"  ....... याद रखना दोस्तों।

हमें समय समय पर इन महान हस्तियों को याद करते रहना चाहिए। अपने बच्चों, छोटे भाई-बहनों, आदि को इन वीर सपूतों की वीर गाथाओं को समय-समय पर सुनाना चाहिए। इन अमर बलिदानियों के किस्से-कहानियों को कॉपी-पेस्ट करके अपने-अपने सोशल नेटवर्क पर डालना चाहिए व एक दूसरे को शेयर करना चाहिए, ताकि और लोगो को भी इन अमर बलिदानियों व शहीदों के बारे में पता लग सके।

जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी .......
🙏🙏

दुनिया भर के इतिहास में ऐसा आदर्श भी हमको देखने को मिलता है, जब एक व्यक्ति नि:स्वार्थ भाव से आत्म बलिदान दे ....
वीर गोकुला के पूर्वज सदियों से महावन बलदेव क्षेत्र के जागीरदार राजा थे||
इनके पूर्वज महाराजा कुलिचंद जाट महमूद गजनवी से युद्ध लड़ा.... वह भगवान श्रीकृष्ण के वंशज थे...

दिल्ली के बादशाह अलमगीर औरंगजेब ने जब आम जनता पर अत्याचार शुरू कर दिए तब उनके खिलाफ उठने वाली पहली तलवार भी जाटों की थी |

हगावई  क्षेत्र में तिलपत (तिल्हू ) के जाट जागीरदार गोकुल सिंह ने औरंगजेब की धर्मांध नीति के विरोध में सशस्त्र विद्रोह कर दिया, जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा । आज भारत वर्ष के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गोकुलसिंह' जी को है। हमें वीर गोकुला सिंह जी की जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है ।

पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे। मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए। क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह की वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा।  देश, धर्म, समाज की रक्षा के लिए गोकुल सिंह ने औरंगजेब को झुका दिया ....

वीर गोकुला सिंह ने निस्वार्थ भाव से औरंगजेब द्वारा पेश की गई मथुरा की गद्दी को भी ठुकरा दिया ....

यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के अनुसार औरंगजेब को, जिसका साम्राज्य ना सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा था। यह थी वीरवर गोकुलसिंह की महानता और वीरता कि दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा जा पहुँचा.....

औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगा गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था....

आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे। यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी। गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन पर किए गए सभी आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास ना तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, ना अरावली की पहाड़ियाँ और ना ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश.... इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, प्रारंभ में जाटों के पक्ष में परिणाम प्राप्त किए....

दिसंबर १६६९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया। जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया। सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा, कोई निर्णय नहीं हो सका। दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया। जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे। मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी वह गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त ना कर सके। भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं, जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो। हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह से यह युद्ध तीसरे दिन भी चला....

तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ। इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी। इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया। बादशाह आलमगीर की इज्जत बच गयी। जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे, उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी, जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा। भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया....

तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया। उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए। इन सबको आगरा लाया गया। औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकर, विराजमान था। सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने कहा -

"जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो। रसूल के बताये रास्ते पर चलो। बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?
अधिसंख्य जाटों ने कहा - "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है, जिस पर तू चल रहा है, तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना, हमें मौत मंजूर है" .....

अगले दिन गोकुल सिंह और उदय सिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर। गोकुल सिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा। कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी। परन्तु उस वीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था। उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को देखने लगा कि दूसरा वार करें। परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे। उन्हें उस क्रूर, निर्दयी, कायर, बुजदिल मुगल औरंगजेब द्वारा ऐसे ही निर्देश थे।
गोकुलसिंह की दूसरी सुडौल भुजा पर जल्लाद का दूसरा कुल्हाड़ा चला, तो फिर से हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा। कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी बायीं भुजा चबूतरे के दूसरी तरफ गिरकर फड़कने लगी। परन्तु उस वीर गोकुल सिंह का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था।
तीसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे। उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे। अनेकों ने अपनी आँखें बंद कर ली। अनेक रोते हुए भाग निकले। कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी। एक को दूसरे का होश नहीं था। वातावरण में एक ही ध्वनि थी......
इधर आगरा में गोकुल सिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर .....

गोकुल सिंह, उदय सिंह और सभी जाट वीरों की शहादत को हम सभी देशवासियों का शत–शत नमन..👏👏
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#VijetaMalikBJP

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