वीर बन्दा सिंह बहादुर बैरागी जी


वीर बन्दा सिंह बहादुर बैरागी
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🌺🌹🪷🙏🙏🌻🌷💐
तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए सुनो ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी..
🌺🌹🪷🙏🙏🌻🌷💐

!! वीर बन्दा बहादुर सिंह बैरागी जी के दिवस पर उन्हें शत्-शत् नमन !!
“बन्दा सिंह बहादुर बैरागी” एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मन दास भी कहते हैं।

बन्दा बहादुर (जन्म - 27 अक्टूबर, 1670, राजौरी; मृत्यु - 9 जून, 1716, दिल्ली) प्रसिद्ध सिक्ख सैनिक और राजनीतिक नेता थे। वे भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख थे, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया। उन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा, छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया।

प्रसिद्ध सिक्ख सैनिक और राजनितिक नेता बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 1670 ईस्वी में कश्मीर के पूंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में रक राजपूत परिवार में हुआ था | उनका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था | 15 वर्ष की उम्र में वह एक वैरागी शिष्य बने और उनका नाम माधोदास हो गया | कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहने के बाद दक्षिण की ओर चले गये और उनहोने आश्रम की स्थापना की | 1708 ईस्वी में सिक्खों के दसवे गुरु गोविन्द सिंह ने इस आश्रम को देखा |

गुरु गोविन्द सिंह ने माधोदास को सिक्ख धर्म में दीक्षित किया और उसका नाम बन्दा सिंह बहादुर रख दिया | गुरु गोविन्द सिंह जी के सात और नौ वर्ष के बच्चो की जब सरहिंद के फौजदार वजीर खां ने क्रूरता से हत्या कर डाली तो बन्दा सिंह पर इसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुयी | उसने वजीर खा से बदला लेना अपना मुख्य कर्तव्य मान लिया | उसने पंजाब आकर बड़ी संख्या में सिक्खों को संघठित किया और सरहिंद पर कब्जा करके वजीर खा को मार डाला |

बन्दा सिंह ने यमुना और सतलज के प्रदेश को अपने अधिकार में लेकर लोहगढ़ का मजबूत किला बनवाया और सिक्ख राज्य की स्थापना की | खालसा के नाम से शासन करते हुए उसने गुरुओ के नाम से सिक्के चलवाए | बन्दा का राज्य थोड़े दिन चला था कि बहादुरशाह प्रथम (1707-12) ने आक्रमण करके लोहगढ़ पर कब्जा कर लिया | उसकी मृत्यु तक बन्दा और उसके साथी अज्ञातवास में रहे | बाद में उन्होंने फिर अपना किला जीत लिया था | किन्तु 1715 में मुगल सेना ने उस स्थान को घेर लिया जहा बन्दा और उनके साथी थे |

गुरु गोबिन्द सिंह से प्रेरणा
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3 सितंबर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम मे, और उन्हें सिक्ख बनाकर उनका नाम बन्दा सिंह बहादुर रख दिया। पंजाब और बाक़ी अन्य राज्यो के हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्ववारा निमम हत्या का प्रतिशोद लेने के लिए रवाना किया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुए। मई, 1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।

जानिए राजौरी, जम्मू कश्मीर के महान योद्धा ने कैसे लिया गुरू तेगबहादुर और गुरू गोविंद सिंह के पुत्रों की शहीदी का बदला ......
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बन्दा बैरागी का जन्म जम्मू कश्मीर के पुंछ में 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, में श्री रामदेव के घर हुआ। माता पिता ने उनका का नाम लक्ष्मणदास रखा था। युवावस्था में उनके हाथों अनजाने में एक ग़लती हो गयी । शिकार खेलते समय उन्होंने एक हिरणी पर तीर चलाया। हिरणी गर्भवती थी और तीर लगने से उसका पेट फट गया, पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका का मन खिन्न हो गया, उन्होंने अपना नाम लक्ष्मणदास से बदल कर माधोदास रख लिया और घर छोड़कर, अनजाने में ही सही, जो अपराध उनसे हुआ था उसका प्रायश्चित करने तीर्थयात्रा पर चल दिये। अपनी इस यात्रा में वे अनेक साधुओं मिले । उन्होंने उनसे योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया (आश्रम) बनाकर रहने लगे।

संयोगवश माधोदास की कुटिया (आश्रम) में गोविन्दसिंह जी आये। जब वे माधोदास से मिले तब तक गोविन्द सिंह जी के चारों पुत्र मुग़लों से लड़ाई में बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुग़लों के आतंक से लड़ने की प्रेरणा दी। इस भेंट के बाद माधोदास का जीवन बदल गया। गुरु गोविन्द सिंह ने माधोदास को बन्दा बहादुर नाम दिया और उन्हें पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा दिया । उन्होंने बंदा बहादुर को अपने दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले, सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा।

कुछ कर गुज़रने को तत्पर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। बंदा बहादुर एक तूफ़ान बन गए जिसे रोकना किसी के बस में नहीं था । सबसे पहले उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर गुरु गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब वजीर खान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बंदा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इन कारनामों से चारों ओर बंदा बहादुर प्रसिद्द हो गए और दूर-दूर तक उनके नाम की चर्चा होने लगी।

सरहिंद पर कब्ज़ा
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मई १७१० ईस्वी में सरहिंद का मशहूर युद्ध छप्पर चिरी क्षेत्र में लड़ा गया। इस युद्ध में बाज सिंह जी बंदा बहादुर जी की सेना में दाहिने भाग के प्रमुख थे। सरदार बाज सिंह जी ने नवाब वज़ीर खान से सीधा मुकाबला किया और एक बरछे के वार से ही उनके घोड़े को मार गिराया तथा वज़ीर खान को बंदी बनाया।

नवाब जिसने गुरु गोविन्द सिंह के परिवार पर जुल्म ढाए थे उसे सूली पर लटका दिया। इस युद्ध में गुरु गोविन्दसिंह जी को शस्त्र विद्या देने वाले बज्जर सिंह राठौर जी भी बुजुर्ग होने के बावजूद वीरता से लड़ते हुए शहीद हुए।

सरहिंद की सुबेदारी सिख राजपूत बाज सिंह पवार को दी गयी, युद्ध जीतने के बाद, सरदार बाज सिंह परमार ने सरहिंद पर 5 साल राज किया।

बन्दा बहादुर ने सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उसने खालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये। बंदा सिंह ने पंजाब हरियाणा के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। बंदा सिंह ने हरियाणा के मुस्लिम रांघड का दमन किया और उनके जबर्दस्त आतंक से जाटों को निजात दिलाई। यहाँ मुस्लिम रांघड़ जमीदार जाटों को कौला पूजन जैसी घिनोनी प्रथा का पालन करने पर मजबूर करते थे और हरियाणा के कलानौर जैसे कई हिस्सों में आजादी के पहले तक ये घिनोनी प्रथा कायम रही।

उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और धोखे से 17 दिसंबर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। मुग़ल उनसे इतने डरे हुए थे कि बंदा बहादुर को प्रताड़ित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। बंदा बहादुर को अपमानित करने के लिए उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में उन्हें बंदी बनाकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। युद्ध में जिन सिख सैनिकों ने वीरगति पायी थी उनके सिर काटकर, उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया, ताकि रास्ते में सभी इस भयावह दृश्य को देखें। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।

दिल्ली में काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा, पर सभी ने अपने धर्म छोड़ने से मना कर दिया। दिल्ली में आज जिस स्थान पर हॉर्डिंग लाइब्रेरी है, वहाँ 7 मार्च, 1716 से प्रतिदिन सौ सिख वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने बंदा बैरागी से पूछा - तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ? उत्तर में बन्दा ने गर्व से कहा कि - क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो भगवान मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है। मुझे ईश्वर ने प्रजा को प्रताड़ित करने वाले दुष्टों के दण्ड देने के लिए अपना शस्त्र बनाकर भेजा हैं।

मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा किसानों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।

अत्याचारी मुग़लों ने बन्दा से पूछा कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं? तो बन्दा ने उत्तर दिया कि मैं अब मौत से नहीं डरता, क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। उन्हें भयभीत करने के लिए उनके 5 वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर, बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।

बन्दा ने अपने ही बेटे की हत्या करने से मना कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस पाँच साल के बच्चे के दो टुकड़े कर उसके दिल का माँस निकलकर बन्दा के मुँह में ठूँस दिया। पर वीर बंदा बैरागी तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ ही बची थीं। इतने निर्मम अत्याचार करने के बाद भी जब बंदा का मनोबल नहीं टूटा तो 9 जून, 1716 को दुश्मनों ने इस वीर बन्दा बहादुर सिंह जी को हाथी के पैरों से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा बैरागी वीरगति को प्राप्त हुए । अपनी कौम की रक्षा के लिए बंदा बैरागी का बलिदान विलक्षण है । ऐसे वीर बलिदानी को हमारा शत शत नमन ।

मान-सम्मान
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दिल्ली के मशहूर बारापुला एलिवेटिड रोड का नाम बदलकर अब बंदा बहादुर के नाम पर रखा गया है। अब बारापुला फ्लाईओवर का नाम 'बाबा बंदा बहादुर सेतु' हो गया है। दरअसल बाबा बंदा सिंह बहादुर शहीद हुए थे महरौली के कुतुबमीनार के पास, लेकिन जहाँ उनका अंतिम संस्कार हुआ, उस जगह पर अब ये पुल बना हुआ है।

शत-शत नमन करूँ मैं आपको.... 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

#HamaraAppNaMoApp


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