महान क्रांतिकारी व स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त जी

महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त
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तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी..
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भगत सिंह के साथ असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त की कहानी बताती है कि अपने महान अमर शहीद क्रांतिकारियों को पूजने वाला यह देश जीते जी उनके साथ क्या सुलूक करता है......

हुसैनीवाला में एक और भी समाधि है.... यह आजादी के उस सिपाही की समाधि है, जो भगत सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ा था लेकिन, उसे भुला दिया गया। भगत सिंह के इस साथी का नाम था.... बटुकेश्वर दत्त ।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लोग फिर भी शहीद दिवस या जन्म दिन के बहाने याद कर लेते हैं लेकिन, बटुकेश्वर दत्त की जिंदगी और उनकी स्मृति, दोनों की आजाद भारत में उपेक्षा हुई है.......

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को तत्कालीन बंगाल में बर्दवान जिले के ओरी गांव में हुआ था। कानपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनकी भगत सिंह से भेंट हुई। यह 1924 की बात है। भगत सिंह से प्रभावित होकर बटुकेश्वर दत्त उनके क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए। उन्होंने बम बनाना भी सीखा। क्रांतिकारियों द्वारा आगरा में एक बम फैक्ट्री बनाई गई थी जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने अहम भूमिका निभाई।

8अप्रैल 1929...... तत्कालीन ब्रितानी संसद में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था। इसका मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार देना। इसका विरोध करने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह के साथ मिलकर संसद में बम फेंके। ये ध्यान खींचने के लिए किए गए धमाके थे, जिनके साथ अपने विचार रखते पर्चे भी फेंके गए थे। इस विरोध के कारण यह बिल एक वोट से पारित नहीं हो पाया। ये दोनों क्रांतिकारी वहां से भागे नहीं और स्वेच्छा से गिरफ्तार हो गए।
बाद में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा। बटुकेश्वर दत्त फांसी की सजा ना मिलने से वे दुखी और अपमानित सा महसूस कर रहे थे। बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी। इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं। भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए।

बटुकेश्वर दत्त ने यही किया। काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल में भेजा गया। वहां से 1937 में वे बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना  लाए गए। 1938 में उनकी रिहाई हो गई। कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था, जिससे वे मरते-मरते बचे। जल्द ही वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए।

1947 में देश आजाद हो गया। नवम्बर, 1947 में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे। लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। कभी सिगरेट कंपनी एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर उन्हें पटना की सड़कों की धूल छाननी पड़ी। बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं। हालांकि बाद में राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी।

सन 1964 में बटुकेश्वर दत्त अचानक बीमार पड़े। पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई नहीं पूछ रहा था। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा.......
"क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"

बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर ने आजाद से मुलाकात की। पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का इलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है। इस पर बिहार सरकार भी हरकत में आयी। बटुकेश्वर दत्त के इलाज पर ध्यान दिया जाने लगा। मगर तब तक उनकी हालत ज्यादा बिगड़ चुकी थी।

22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि ...... "उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था, वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे।"

बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं। कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे। छलछलाती आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा.....
"मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।"

उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई। 17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया। बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया।

एक पुरानी कहावत है......
जीते को मांड नहीं और मरे को खांड ।
लेकिन बटुकेश्वर दत्त के साथ तो इससे भी बुरा हुआ। आजाद भारत में ना जीते जी उनकी कोई पूछ रही और ना ही उनकी स्मृति का कोई मोल दिखता है।

ये सरकारें भले ही आपको ना पूछे, पर आप हम सब देशवासियों के दिलों से हमेशा सम्मान से याद किये जायेंगे।😥🙏

आजादी के लिए जीवन के अंतिम क्षण तक प्रयासरत रहकर जन-जन में क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित करने वाले क्रांतिवीर बटुकेश्वर दत्त जी की पुण्यतिथि पर उन्हें शत-शत नमन करूँ मैं..... 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

#HamaraAppNaMoApp

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