वीरांगना झलकारी बाई जी

वीरांगना झलकारी बाई
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तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी...
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"जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी",
इन्हें कहते हैं दूसरी रानी लक्ष्मीबाई.....

देश के लिए मर-मिटने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम हर किसी के दिल में बसा है। कोई अगर भुलाना भी चाहे तब भी भारत माँ की इस महान बेटी को नहीं भुला सकता। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और बेटी थी, जिसके सर पर ना रानी का ताज था और ना ही सत्ता पर। फिर भी अपनी मिट्टी के लिए वह जी-जान से लड़ी और इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी।

वह वीरांगना, जिसने ना केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की!

वो थी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परछाई बन अंग्रेजों से लोहा लेने वाली, वीरांगना झलकारी बाई।

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर, 1830 को ग्राम भोजला (झांसी, उ.प्र.) में हुआ था। उसके पिता मूलचन्द्र जी सेना में काम करते थे। इस कारण घर के वातावरण में शौर्य और देशभक्ति की भावना का प्रभाव था। घर में प्रायः सेना द्वारा लड़े गये युद्ध, सैन्य व्यूह और विजयों की चर्चा होती थी। मूलचन्द्र जी ने बचपन से ही झलकारी को अस्त्र-शस्त्रों का संचालन सिखाया। इसके साथ ही पेड़ों पर चढ़ने, नदियों में तैरने और ऊँचाई से छलांग लगाने जैसे कार्यों में भी झलकारी पारंगत हो गयी।

एक बार झलकारी जंगल से लकड़ी काट कर ला रही थी, तो उसका सामना एक खूँखार चीते से हो गया। झलकारी ने कटार के एक वार से चीते का काम तमाम कर दिया और उसकी लाश कन्धे पर लादकर ले आयी। इससे गाँव में शोर मच गया। एक बार उसके गाँव के प्रधान जी को मार्ग में डाकुओं ने घेर लिया। संयोगवश झलकारी भी वहाँ आ गयी। उसने हाथ के डण्डे से डाकुओं की भरपूर ठुकाई की और उन्हें पकड़कर गाँव ले आयी। ऐसी वीरोचित घटनाओं से झलकारी पूरे गाँव की प्रिय बेटी बन गयी।

जब झलकारी युवा हुई, तो उसका विवाह झाँसी की सेना में तोपची पूरन कोरी से हुआ। यह वीर सैनिक  पूरन भी झांसी की सेना में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्द था।

विवाह के बाद जब झलकारी झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की बहादुरी के किस्से सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी को तुरंत ही अपनी दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दे दिया।

झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पहले से ही इन कलाओं में कौशल झलकारी इतनी पारंगत हो गयी कि जल्द ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।

केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी ने व्यक्तिगत तौर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया। हमशक्ल होने के कारण कोई भी पहचान नहीं पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई। जिस युद्ध में झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई बनकर लड़ी थीं, उसी युद्ध में उनके पति शहीद हुए थे। बावजूद इसके उन्होंने पति के शोक की जगह राज्य की सुरक्षा और अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी।

युद्ध के दौरान झलकारी बाई
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1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि उनकी सहायता को आए तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।

जल्द ही अंग्रेजी फ़ौज झाँसी में घुस गयी और रानी अपने लोगों को बचाने के लिए जी-जान से लड़ने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें।

इसलिए कहा जाता है दूसरी लक्ष्मीबाई
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इतिहासकारों के मुताबिक 23 मार्च 1858 को जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया था। ये 1857 के विद्रोह का दौर था। रानी लक्ष्मीबाई ने वीरतापूर्वक अपने 5000 सैनिकों के दल संग उस विशाल सेना का सामना किया। जल्द ही अंग्रेज सेना झाँसी में घुस गयी और लक्ष्मीबाई, झाँसी को बचाने के लिए उनका डटकर सामना कर रहीं थीं। इस दौरान झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया। खास बात ये है कि इसी युद्ध में उनके पति शहीद हो चुके थे। बावजूद उन्होंने पति का शोक मनाने की जगह राज्य और अपनी रानी के लिए लड़ने को प्राथमिकता दी थी।

इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया, ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें। इस तरह झलकारीबाई खुद रानी लक्ष्मीबाई बनकर लडती रहीं और जनरल रोज की सेना उनके झांसे में आकर उन पर प्रहार करने में लगी रही। काफी देर बाद उन्हें पता चला की वह रानी लक्ष्मीबाई नही हैं। इस पर अंग्रेजी सेना उन पर टूट पड़ी। यह झलकारी की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को झांसी किले से निकल कर ताकत जुटाने के लिए और समय मिल जाये। उन्हे जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था......

“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा।”

झलकारी बाई की इस महानता को बुंदेलखंड में रानी लक्ष्मीबाई के बराबर सम्मान दिया जाता है। दलित के तौर पर उनकी महानता और हिम्मत ने उत्तर भारत में दलितों के जीवन पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला।

उनकी मौत कैसे हुई थी, इतिहास में इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ब्रिटिश सेना द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई थी। वहीं कुछ जगहों पर जिक्र किया गया है कि वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुई थीं। कुछ जगहों पर अंग्रेजों द्वारा झलकारीबाई को तोप से उड़ाने का जिक्र किया गया है।
इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी बाई को युद्ध के दौरान ‎4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। इस पर एक कथा है कि जब झल्कारी बाई रानी लक्ष्मीबाई की तरह युद्ध कर रही थी, अंग्रेज सेना के अधिकारी भ्रम में पड़े रहे। वे रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा या मुर्दा किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करना चाहते थे; पर दोनों हाथों में तलवार लिये झलकारी उनके सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट रही थी। उस पर हाथ डालना आसान नहीं था। तभी एक देशद्रोही दुल्हाज ने जनरल ह्यूरोज को बता दिया कि जिसे वे रानी लक्ष्मीबाई समझ रहे हैं, वह तो दुर्गा दल की नायिका झलकारी बाई है।

यह जानकर ह्यूरोज दंग रह गया। उसके सैनिकों ने एक साथ धावा बोलकर झलकारी को पकड़ लिया। झलकारी फाँसी से मरने की बजाय वीरता की मृत्यु चाहती थी। उसने अपनी एक सखी वीरबाला को संकेत किया। संकेत मिलते ही वीरबाला ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। इस प्रकार झलकारी बाई ने अपने जीवन और मृत्यु, दोनों को सार्थक कर दिखाया।

झलकारी बाई के सम्मान में पोस्टल स्टैम्प
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इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस बेटी झलकारी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला। पर उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है। झलकारी बाई की बहादुरी और इतिहास में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया था। इसमें झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार दिखती हैं। उनके चित्र वाला टेलीग्राम स्टांप भी जारी किया गया था। भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में झांसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है। अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की है। उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी है।

साहित्य व उपन्यासों में लक्ष्मीबाई की तरह है जिक्र
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही झलकारीबाई का भी साहित्य, उपन्यासों और कविताओं में जिक्र किया गया है। 1951 में बीएल वर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में झलकारी बाई को विशेष स्थान दिया गया है। रामचंद्र हेरन के उपन्यास माटी में झलकारीबाई को उदात्त और वीर शहीद कहा गया है। भवानी शंकर विशारद ने 1964 में झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र लिखा था। इसका बाद कई साहित्यकारों और लेखकों ने झलकारीबाई की बहादुरी की तुलना रानी लक्ष्मीबाई से की है। लक्ष्मीबाई पर लिखी गई कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ की तर्ज पर कवि मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है.....

“जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”

एक अन्य कवि प्रदीप ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था.......

    “झलकारी बाई”

झलकारी की झलक देखकर ,
वो बुन्देले भी हाँफ गये……
जब उतरी वो समरभूमि में ,
गौरे भी थर-थर काँप गये ||

जमुना-कोख से पैदा हुई ,
भोजला गाँव में बड़ी हुई |
जब आया संकट, झाँसी पर ,
लक्ष्मी के आगे खड़ी हुई ||

रानी को रण से भेज दिया,
निज बौद्धिक-बल के बूते से |
दुश्मन को धूल चटाई थी ,
अपने पैरों के जूते से ||

समर में थी वो रूकी हुई…
अंग्रेज रोज को डाटा था |
निज अश्व हुआ जब जख्मी तो,
कृपाण से दुश्मन काटा था ||

वो अबला थी ,पर यौद्धा थी ,
और वीरांगना कहलाई |
मनु के वेश में लड़ी वो तब ,
फिर लौट के न वो घर आई ||

रानी झाँसी को बचा गई ,
ऐसी नारी थी झलकारी….
“प्रदीप” कवि का प्रणाम उन्हें
है धन्य झलक की महतारी ||

भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई को सुरक्षित निकालने और देशहित में अपना सर्वोच्च न्योछावर करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का देश सदैव ऋणी रहेगा!

शत-शत नमन करूँ मैं आपको...... 💐💐💐

#VeerangnaJhalkariBai
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

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