भक्त शिरोमणी संत 'नरसी मेहता'
भक्त शिरोमणी संत 'नरसी मेहता'
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यधपि भक्तराज नरसिंहराम ने स्वाभाव से ही सभी पर दया की उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कभी भी किसी पर क्रोध नही किया।
फिर भी लोग कई तरह के षड्यंत्र कर उन्हें कष्ट पहुचाने के प्रपंच करते ही रहते थे ,
समय के साथ जितनी अधिक उनकी हरिभक्ति प्रगाढ़ होती जा रही थी उतने ही उनसे बैर रखने वाले मूर्खो की मंडलीय भी बढ़ती ही जा रही थी।
किन्तु हर बार किसी की एक न चलती,
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हरिभक्त का अहित भला हो भी कैसे सकता हे
( स्वयं गीता में श्रीकृष्ण ने कहा हे " मेरे भक्त का कभी नाश नही होता ")
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अनेक प्रयास के उपरांत भी जब कुछ ना हुआ तो इस बार पुरे गाँव की मुर्ख मण्डली एकत्र हो राजमहल पहुँची।
उस समय जूनागढ़ के राज्यआसन पर 'रावमंडलीक ' राजा विद्यमान थे,
सभी ने भक्तराज की झूठी निंदा व् अनेक प्रकार के झूठ रचकर राजा से नरसिंहराम को दण्डित करने की याचना की।
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राजा ने नरसिंहराम को अपराधी की तरह दरबार में में बुलाया व् भरे दरबार में उनसे भक्त होने का प्रमाण माँगा गया।
(उस काल से लेकर आज भी मुर्ख वृत्ति के लोग यहि करते हे )
अब भला जिन संतो ने सर्वस्व श्रीचरणों अर्पित कर दिया हो उसके लिए तो इस प्रकार का प्रश्न भी निरर्थक ही हैं,
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वास्तव में वैष्णव के जीवन का 'मैं ' का तो उसी दिन समाप्त हो जाता हे जिस दिन सर्वप्रथम हरि नाम श्रवण करता हे,
अतः भक्तराज मौन ही रहे,
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राजा ने पुनः उनसे भक्ति का प्रमाण माँगा और कोई चमत्कार दिखाने को कहा गया ?
उस समय नरसी जी द्वारा रचित "केदार राग " भी बड़ा प्रचलित था ,
(मान्यता थी की श्रीभगवान स्वयं उनका वह राग बड़े ध्यान से सुनते थे और राग समाप्ति पर श्रीविग्रह के कंठ का हार स्वतः ही उपहार स्वरुप भक्तराज के गले में आ जाता था। )
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अतः भक्तराज से राज दरबार में केदारराग गाकर सुनाने को कहा गया।
नरसीजी के मन की भी यही थी, सुख हो या विपत्ति उन्हें हरि के गुणानुवाद रूपी भजन का ही तो सहारा था।
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किन्तु केदारराग नही गाने का वचन वे पहले ही साहूकार को उधार लेते समय लिखित में दे चुके थे जोकि उन सभी दुष्टो का ही रच रचाया ही षड्यंत्र था।
भक्तराज वचनबद्ध थे अतः मौन रहे,
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राजा ने भक्तराज को सूर्यास्त से पहले यदि केदारराग सुनाकर चमत्कार दिखाने को कहा अन्यथा दंडस्वरूप मृत्युदंड घोषित कर दिया।
भक्तराज को ना तो मृत्यु भय था ना ही किसी प्रकार के चमत्कार से अपने ईस्ट को बाध्य करने की महत्वकांक्षा ,
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इधर भक्त पर आया संकट जानकर द्वारिकानाथ पुनः जूनागढ़ पधारे ,
उन्होंने नरसीजी का रूप धारण कर साहूकार का कर्ज चुकाया और नरसीजी का केदारराग नही गाने का लिखित पत्र वापस लिया और दैवीय शक्ति से उस पत्र को दरबार में उड़ता हुआ नरसीजी के समक्ष पंहुचा दिया।
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भक्तराज ने अपने प्रभु की कृपा को भाप कर मन ही मन धन्यवाद दिया और अत्यंत ही भाव के साथ अश्रुप्रवाहित करते हुए केदारराग गाया।
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आज प्रभु ने श्रीविग्रह से कोई चमत्कार ना दिखाकर अपितु स्वयं ही भक्तराज के समक्ष प्रमाण स्वरुप प्रगट हो गए व् भक्तराज का ह्रदय से आलिंगन कर लिया।
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ये दृश्य देख राजसभा में किसी की भी एकशब्द भी कहने की हिम्मत ना हुई।
भक्त के सामने भगवन के प्रकट होने पर भक्त की क्या दशा
होती है इसका… वर्णन कौन का सकता है?
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प्रभु को निकट देख आज भक्तराज के संयम का बांध मानो टूट सा गया, भक्तराज प्रभु से लिपटकर फूट -फुट कर रोने लगे,
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जब उससे भी तृप्ति ना हुई तो प्रभु के चाणकमलो मे लोट गये
प्रभु ने कहा -आज मैने' विनोदवश तुमको बहुत अधिक दुख दे दिया क्षमा कीजिये।
गदगद कण्ठ से भक्तराज ने प्रार्थना की - कृपानिधान आपकी माया के वशीभूत इस संसार में अब मैं और अधिक नही रह सकता,
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नाथ! आपने जिन ऋणों से मुक्ति के लिए मुझे अपने चरणों से विलग कर दिया था अब तो वो भी आपकी दया से पूर्ण हो चुके,
प्रभो! यहाँ ' तो सब दगाबाज , कुटिल, अन्यायी और नास्तिक " लोगो को ही स्थान देना उचित है ।
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मुझे इस अयोग्य संसार से कोई प्रयोजन नहीं । मैँ तो आपके
चरणकमलों के अतिरिक्त" ब्रह्यपद को भी नहीं चाहता… ।'
इतना कहते कहते भक्तराज मूर्छित हो गए,
प्रभु ने भक्तराज के मस्तक पर अपना वरद-हस्त पधराया
और प्रभु भी अंतरध्यान हो गए।
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भगवान के दर्शन से राजा सहित सभी के ह्रदय में नरसिंहराम के प्रति श्रद्धा बढ़ गयी ,
बाद में भक्तराज के अंतःकरण में भगवद आज्ञा स्वरुप कुछ दिवस और धरा धाम पर रहकर लोक कल्याण के निमित्त उनके सुंदर भजन व् पदों को लिखने की प्रभु ने आज्ञा की,
भक्तराज उसके बाद बड़ी शांति से भजन करते हुए वक्त बिताने लगे, भगवद आज्ञा मानकर लोककल्याण के निमित्त ज्ञानभक्तिपूर्ण पदों की रचना करने लगे।
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इस प्रकार प्रायः पांच वर्ष और जीवन धारण करने के बाद भक्तराज इस आश्वस्त भौतिक देह का परित्याग कर सच्चिदानद परमात्मापद को प्राप्त हो गये । इन पांच सालो में " उन्होनै हजारों पर्दो की रचना कर डाली ।
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यद्पि उनका स्थूल शरीर अब हमारे सम्मुख नहीं हैं तथापि उनकी काव्यमयी कीर्तिकाया आज भी हमेँ अपने सत्संग का" लाभ प्रदान कर रही है ।
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उनके पद संसार संतप्त मनुष्यो को कल्याण मार्ग पर पहुचाने में सदा से सहायता करते आ रहे हे और भविष्य भक्तो को लाभ पहुचाते रहेंगे।
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सदाशिव भूतभावन ने जिन्हें बाल्यकाल में हरिनाम दिया ,
स्वयं मीराबाई सा ने भी अपनी रचना में भक्तराज नरसी मेहता की भक्ति को वंदन किया....
जिनका कार्य करने में स्वयं प्रभु अपना सौभाग्य समझते थे,
उन गोविंद के परमप्रिय, हर-एक को 'हरिजन' कहकर संबोधित करने वाले भक्तराज नरसी मेहता जी को मैं ह्रदय से नमन करती हूँ ।
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🌷हे गोविन्द - हे गोपाला 🌷
🙏🙏
#VijetaMalikBJP