चंद्रशेखर आज़ाद - एक महान स्वतंत्रता सेनानी

चंद्रशेखर आज़ाद 
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तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी...
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मुछों पर ताव,
कमर में पिस्टल,
कांधे पर जनेऊ,
शेर सी शख्सियत.......

वो याद थे, वो याद हैं, वो याद ही रहेंगे,
वो आज़ाद थे, आज़ाद है, आज़ाद ही रहेंगे...

पंडित चंद्रशेखर आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध और महान क्रांतिकारी थे। 17 वर्ष के चंद्रशेखर आज़ाद क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सम्मिलित हो गए। दल में उनका नाम ‘क्विक सिल्वर’ (पारा) तय पाया गया। पार्टी की ओर से धन एकत्र करने के लिए जितने भी कार्य हुए, चंद्रशेखर उन सबमें आगे रहे। सांडर्स वध, सेण्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह द्वारा बम फेंकना, वाइसराय को ट्रेन बम से उड़ाने की चेष्टा, सबके नेता वही थे। इससे पूर्व उन्होंने प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए। एक बार दल के लिये धन प्राप्त करने के उद्देश्य से वे गाजीपुर के एक महंत के शिष्य भी बने। इरादा था कि महंत के मरने के बाद मरु की सारी संपत्ति दल को दे देंगे।

जीवन परिचय
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पूरा नाम : पंडित चंद्रशेखर तिवारी
अन्य नाम : आज़ाद
जन्म : 23 जुलाई, 1906
जन्म भूमि : आदिवासी गाँव भावरा, मध्य प्रदेश
मृत्यु : 27 फ़रवरी, 1931
मृत्यु स्थान : इलाहाबाद
अभिभावक : पंडित सीताराम तिवारी
नागरिकता : भारतीय
धर्म : हिन्दू
आंदोलन : भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
विद्यालय : संस्कृत विद्यापीठ
प्रमुख संगठन : नौज़वान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी एवं हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ

व्यक्तिगत जीवन :
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चंद्रशेखर आज़ाद को वेष बदलना बहुत अच्छी तरह आता था।वह रूसी क्रान्तिकारी की कहानियों से बहुत प्रभावित थे। उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी पुस्तक भी थी। किंतु उनको स्वयं पढ़ने से अधिक दूसरों को पढ़कर सुनाने में अधिक आनंद आता था। चंद्रशेखर आज़ाद सदैव सत्य बोलते थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने साहस की नई कहानी लिखी। उनके बलिदान से स्वतंत्रता के लिए आंदोलन तेज़ हो गया। हज़ारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।आज़ाद के शहीद होने के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आज़ादी का उनका सपना पूरा हुआ।

पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म एक आदिवासी ग्राम भावरा में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था। उनके पितापंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गाँव के रहने वाले थे। भीषण अकाल पड़ने के कारण वे अपने एक रिश्तेदार का सहारा लेकर 'अलीराजपुर रियासत' के ग्राम भावरा में जा बसे थे। इस समय भावरा मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले का एक गाँव है। चन्द्रशेखर जब बड़े हुए तो वह अपने माता–पिता को छोड़कर भाग गये और बनारस जा पहुँचे। उनके फूफा जी पंडित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। कुछ उनका सहारा लिया और कुछ खुद भी जुगाड़ बिठाया तथा 'संस्कृत विद्यापीठ' में भर्ती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लगे। उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाए, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे। 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ नरसंहार ने उन्हें काफ़ी व्यथित किया।

बचपन का दृढ़निश्चय
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एक आदिवासी ग्राम भावरा के अधनंगे आदिवासी बालक मिलकर दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे। किसी बालक के पास फुलझड़ियाँ थीं, किसी के पास पटाखे थे और किसी के पास मेहताब की माचिस। बालक चन्द्रशेखर के पास इनमें से कुछ भी नहीं था। वह खड़ा–खड़ा अपने साथियों को खुशियाँ मनाते हुए देख रहा था। जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, वह उसमें से एक तीली निकालता और उसके छोर को पकड़कर डरते–डरते उसे माचिस से रगड़ता और जब रंगीन रौशनी निकलती तो डरकर उस तीली को ज़मीन पर फेंक देता था। 
बालक चन्द्रशेखर से यह देखा नहीं गया, वह बोले-
"तुम डर के मारे एक तीली जलाकर भी अपने हाथ में पकड़े नहीं रह सकते। मैं सारी तीलियाँ एक साथ जलाकर उन्हें हाथ में पकड़े रह सकता हूँ।"
जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, उसने वह चन्द्रशेखर के हाथ में दे दी और कहा-
"जो कुछ भी कहा है, वह करके दिखाओ तब जानूँ।"
बालक चन्द्रशेखर ने माचिस की सारी तीलियाँ निकालकर अपने हाथ में ले लीं। वे तीलियाँ उल्टी–सीधी रखी हुई थीं, अर्थात् कुछ तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की तरफ़ भी था। उसने तीलियों की गड्डी माचिस से रगड़ दी। भक्क करके सारी तीलियाँ जल उठीं। जिन तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की ओर था, वे भी जलकर चन्द्रशेखर की हथेली को जलाने लगीं। असह्य जलन होने पर भी चन्द्रशेखर ने तीलियों को उस समय तक नहीं छोड़ा, जब तक की उनकी रंगीन रौशनी समाप्त नहीं हो गई। जब उन्होंने तीलियाँ फेंक दीं तो साथियों से बोले-
"देखो हथेली जल जाने पर भी मैंने तीलियाँ नहीं छोड़ीं।"
उनके साथियों ने देखा कि चन्द्रशेखर की हथेली काफ़ी जल गई थी और बड़े–बड़े फफोले उठ आए थे। कुछ लड़के दौड़ते हुए उनकी माँ के पास घटना की ख़बर देने के लिए जा पहुँचे। उनकी माँ घर के अन्दर कुछ काम कर रही थीं। चन्द्रशेखर के पिता पंडित सीताराम तिवारी बाहर के कमरे में थे। उन्होंने बालकों से घटना का ब्योरा सुना और वे घटनास्थल की ओर लपके। बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिताजी को आते हुए देखा तो वह जंगल की तरफ़ भाग गये। सोचा कि पिताजी अब उनकी पिटाई करेंगे। तीन दिन तक वह जंगल में ही रहे। एक दिन खोजती हुई उनकी माँ उन्हें घर ले आईं। उन्होंने यह आश्वासन दिया था कि तेरे पिताजी तेरे से कुछ भी नहीं कहेंगे।

1921 में जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलनप्रारंभ किया तो उन्होंने उसमे सक्रिय योगदान किया। चन्द्रशेखर भी एक दिन धरना देते हुए पकड़े गये। उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट के अदालत में पेश किया गया। मि. खरेघाट बहुत कड़ी सजाएँ देते थे। उन्होंने बालक चन्द्रशेखर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया -

"तुम्हारा नाम क्या है?"....
"मेरा नाम आज़ाद है।"
"तुम्हारे पिता का क्या नाम है?"....
"मेरे पिता का नाम स्वाधीन है।" 
"तुम्हारा घर कहाँ पर है?"....
"मेरा घर जेलखाना है।"

मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए। उन्होंने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सज़ा सुना दी। उस समय चन्द्रशेखर की उम्र केवल चौदह वर्ष की थी। जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा सहन कर लेने का अभ्यास चन्द्रशेखर को बचपन से ही था। वह हर बेंत के साथ "भारत माता की जय" बोलते जाते थे। जब पूरे बेंत लगाए जा चुके तो जेल के नियमानुसार जेलर ने उसकी हथेली पर तीन आने पैसे रख दिए। बालक चन्द्रशेखर ने वे पैसे जेलर के मुँह पर दे मारे और भागकर जेल के बाहर हो गया। इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मानरहित उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनन्दन किया गया। अब वह चन्द्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा। बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल "हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ" के नाम से जाना जाता था।

काकोरी काण्ड
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किसी बड़े अभियान में चन्द्रशेखर आज़ाद सबसे पहले "काकोरी डक़ैती" में सम्मिलित हुए। इस अभियान के नेता रामप्रसाद बिस्मिल थे। उस समय चन्द्रशेखर आज़ाद की आयु कम थी और उनका स्वभाव भी बहुत चंचल था। इसलिए रामप्रसाद बिस्मिल उसे क्विक सिल्वर (पारा) कहकर पुकारते थे। 9 अगस्त, 1925को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर सहारनपुर - लखनऊ सवारी गाड़ी को रोककर उसमें रखा अंगेज़ी ख़ज़ाना लूट लिया। बाद में एक–एक करके सभी क्रान्तिकारी पकड़े गए; पर चन्द्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ में नहीं आए। यद्यपि वे झाँसी में पुलिस थाने पर जाकर पुलिस वालों से गपशप लड़ाते थे, पर पुलिस वालों को कभी भी उन पर संदेह नहीं हुआ कि वह व्यक्ति महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हो सकता है। काकोरी कांड के बाद उन्होंने दल का नये सिरे से संगठन किया। अब उसका नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन एण्ड आर्मी’ रखा गया। चंद्रशेखर इस नये दल के कमांडर थे। वे घूम-घूम कर गुप्त रूप से दल का कार्य बढ़ाते रहे। फरारी के दिनों में झाँसी के पास एक नदी के किनारे साधु के रूप में भी उन्होंने कुछ समय बिताया।

झांसी प्रवास
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काकोरी काण्ड के कई क्रान्तिकारियों को फाँसी के दंड और कई को लम्बे–लम्बे कारावास की सज़ाएँ मिलीं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने खिसककर झाँसी में अपना अड्डा जमा लिया। झाँसी में चन्द्रशेखर आज़ाद को एक क्रान्तिकारी साथी मास्टर रुद्रनारायण सिंह का अच्छा संरक्षण मिला। झाँसी में ही सदाशिव राव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर और विश्वनाथ वैशंपायन के रूप में उन्हें अच्छे साथी मिल गए। झाँसी की 'बुंदेलखण्ड मोटर कम्पनी' में कुछ दिन उन्होंने मोटर मैकेनिक के रूप में काम किया, मोटर चलाना सीखा और पुलिस अधीक्षक की कार चलाकर उनसे मोटर चलाने का लाइसेंस भी ले आए। बुंदेलखण्ड मोटर कम्पनी के एक ड्राइवर रामानन्द ने चन्द्रशेखर आज़ाद के रहने के लिए अपने ही मोहल्ले में एक कोठरी किराए पर दिला दी। सब काम ठीक–ठीक चल रहा था; पर कभी–कभी कुछ घटनाएँ मोहल्ले की शान्ति भंग कर देती थीं। आज़ाद की कोठरी के पास रामदयाल नाम का एक अन्य ड्राइवर सपरिवार रहता था। वैसे तो रामदयाल भला आदमी था, पर रात को जब वह शराब पीकर पहुँचता तो बहुत हंगामा करता और अपनी पत्नी को बहुत पीटता था। उस महिला का रुदन सुनकर मोहल्ले वालों को बहुत ही बुरा लगता था; पर वे किसी के घरेलू मामले में दख़ल देना उचित नहीं समझते थे। एक दिन सुबह–सुबह चन्द्रशेखर आज़ाद कारख़ाने जाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकले तो रामदयाल से उनकी भेंट हो गई। रामदयाल ने ही बात छेड़ी-

"क्यों हरीशंकर जी ! (आज़ाद ने अपना नाम हरिशंकर घोषित कर रखा था) आजकल आप बहुत रात जागकर कुछ ठोंका–पीटी किया करते हैं। आपकी ठुक–ठुक से हमारी नींद हराम हो जाती है। 
वैसे तो आज़ाद स्थिति को टाल देना चाहते थे, पर रामदयाल ने जिस ढंग से बात कही थी, वह उत्तर देने के लिए बहुत अच्छी लगी और आज़ाद ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया -
"रामदयाल भाई! मैं तो कल–पुरज़ों की ही ठोंका–पीटी करता हूँ, पर तुम तो शराब के नशे में अपनी गऊ जैसी पत्नी की ही ठोंका–पीटी करके मोहल्ले भर की नींद हराम करते रहते हो।" 
यह उत्तर रामदयाल को बहुत ही तीखा लगा। उसे इस बात का बुरा लगा कि कोई उसके घरेलू मामले में क्यों हस्तक्षेप करे। उसका मनुष्यत्व तिरोहित हो गया और पशुत्व ऊपर आ गया। क्रोध से भनभनाता हुआ वह उबल पड़ा .....
"क्यों बे! मेरी पत्नी का तू कौन होता है, जो तू उसका इस तरह से पक्ष ले रहा है? मैं उसे मारूँगा और खूब मारूँगा। देखता हूँ, कौन साला उसे बचाता है।"
आज़ाद ने शान्त भाव से उसे उत्तर दिया -
"जब तुमने मुझे साला कहा है, तो तुमने यह स्वीकार कर ही लिया है कि मैं तुम्हारी पत्नी का भाई हूँ। एक भाई अपनी बहन को पिटते हुए नहीं देख सकता है। अब कभी शराब के नशे में रात को मारा तो ठीक नहीं होगा।"
रामदयाल को चुनौती असह्य हो गई। वह आपा खोकर चिल्ला उठा -
"ऐसी की तैसी रात की और नशे की। मैं बिना नशा किए ही उसे दिन के उजाले में सड़क पर लाकर मारता हूँ। देखें, कौन साला आगे आता है उसे बचाने को।"

यह कहता हुआ रामदयाल आवेश के साथ अपने मकान में घुसा और अपनी पत्नी की चोटी पकड़कर घसीटता हुआ उसे बाहर ले आया और मारने के लिए हाथ उठाया। वह अपनी पत्नी पर हाथ का प्रहार कर भी नहीं पाया था कि आज़ाद ने उसका हाथ थाम लिया और झटका देकर उसे अपनी ओर खींचा। इस झटके के कारण उसके हाथ से पत्नी के बाल छूट गए और वह मुक्त हो गई। अब आज़ाद ने एक भरपूर हाथ उसके गाल पर दे मारा। रामदयाल के गाल पर इतने ज़ोर का तमाचा पड़ा कि उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह अपने दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बैठ गया। इस बीच आसपास के लोग दौड़े और कुछ लोग आज़ाद को समझाते हुए उसे कोठरी के अन्दर ले गए। इस घटना के बाद कुछ दिन तक आज़ाद और रामदयाल की बोलचाल बन्द हो गई, पर आज़ाद ने स्वयं ही पहल करके उससे अपने सम्बन्ध मधुर बना लिए तथा अब उसे "जीजा जी" कहकर पुकारने लगे। रामदयाल ने अपनी पत्नी को फिर कभी नहीं पीटा। आज़ाद की धाक पूरे मोहल्ले में जम गई। इसी से मिलती–जुलती एक अन्य घटना भी थोड़े ही अन्तराल से हो गई। जिसने पूरे झाँसी में आज़ाद की धाक जमा दी।

ओरछा प्रवास
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जब झाँसी में पुलिस की हलचल बढ़ने लगी तो चन्द्रशेखर आज़ाद ओरछा राज्य में खिसक गए और सातार नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर ब्रह्मचारी के रूप में रहने लगे। आज़ाद के न पकड़े जाने का एक रहस्य यह भी था कि संकट के समय वे शहर छोड़कर गाँवों की ओर खिसक जाते थे और स्वयं को सुरक्षित कर लेते थे।

हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना
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क्रान्ति सूत्रों को जोड़कर चन्द्रशेखर आज़ाद ने अब एक सुदृढ़ क्रान्तिकारी संगठन बना डाला। अब उनकी पार्टी का नाम "हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना" था। उनके साथियों ने उनको ही इस सेना का "कमाण्डर आफ चीफ" बनाया। अब भगतसिंह जैसा क्रान्तिकारी भी उनका साथी था। उत्तर प्रदेश और पंजाब तक इस पार्टी का कार्यक्षेत्र बढ़ गया।

साइमन कमीशन का विरोध
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उन दिनों भारतवर्ष को कुछ राजनीतिक अधिकार देने की पुष्टि से अंग्रेज़ी हुकूमत ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग की नियुक्ति की, जो "साइमन कमीशन" कहलाया। समस्त भारत में साइनमन कमीशन का ज़ोरदार विरोध हुआ और स्थान–स्थान पर उसे काले झण्डे दिखाए गए। जब लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध किया गया तो पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाईं। पंजाब के लोकप्रिय नेता लाला लाजपतराय को इतनी लाठियाँ लगीं की कुछ दिन के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और पार्टी के अन्य सदस्यों ने लाला जी पर लाठियाँ चलाने वाले पुलिस अधीक्षक सांडर्स को मृत्युदण्ड देने का निश्चय कर लिया।

लाला लाजपतराय का बदला
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17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और राजगुरु ने संध्या के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को जा घेरा। ज्यों ही जे. पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग़ दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा। भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार–छह गोलियाँ और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। लाहौर नगर में जगह–जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया। समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस क़दम को सराहा गया।

केन्द्रीय असेंबली में बम
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चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंहऔर बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात् भगतिसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे।

अल्फ़्रेड पार्क की घटना
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चन्द्रशेखर आज़ाद घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को यह सूचना दी कि चन्द्रशेखर आज़ाद 'अल्फ़्रेड पार्क' में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। वह 27 फ़रवरी, 1931 का दिन था। चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे। मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक 'नाटबाबर' ने आज़ाद को इलाहाबादके अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया। "तुम कौन हो" कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आज़ाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आज़ाद की जाँघ में जा लगी। आज़ाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग़ दी। आज़ाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाड़ी के पीछे सी.आई.डी. इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आज़ाद को एक गाली दे दी। गाली को सुनकर आज़ाद को क्रोध आया। जिस दिशा से गाली की आवाज़ आई थी, उस दिशा में आज़ाद ने अपनी गोली छोड़ दी। निशाना इतना सही लगा कि आज़ाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया।

शहादत
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बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। आख़िर पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं। उनके माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी। गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया। इस घटना में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु हो गई और उन्हें पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उन्हें तीन या चार गोलियाँ लगी थीं। 

"तू शहीद हुआ .....
ना जाने कैसे तेरी माँ सोयी होगी,
पर ये तो तय हैं ......
तुझे लगने वाली वो गोली भी,
सौ बार रोई होगी।"

अल्फ़्रेड पार्क में आज़ाद के बलिदान का समाचार जब देशभक्तों को पता चला तो उन्होंने श्मशान घाट से आज़ाद की अस्थियाँ लेकर एक जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं, ऐसा लग रहा था मानो सारा देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। जलूस के बाद एक सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सन्बोधित करते हुए कहा -

"जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया, वैसे ही आज़ाद को भी ये सम्मान मिलेगा।"
27 फ़रवरी, 1931 को चन्द्रशेखर आज़ाद के रूप में देश का एक महान् क्रान्तिकारी योद्धा देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान दे गया, शहीद हो गया।
"भारत के देशभक्तों को सदा याद रहूँगा.....
मैं आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा ।।"

अमर शहीद, महान क्रांतिकारी “चंद्रशेखर आज़ाद जी” की पुण्यतिथि पर उन्हें शत शत नमन करूँ मैं...💐💐💐💐
🙏🙏
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