गुरु गोविंद सिंह जी
गुरु गोबिंद सिंह जी
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"सवा लाख से एक लड़ावाँ ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ" का उद्घोष करने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरू थे। उन्हों ही सिख समुदाय को एकजुट करके “खालसा पंथ” की स्थापना की। गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही सिखों को “पंज प्यारे” और “पंच ककार” दिए। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंति आज 09 जनवरी, दिन रविवार को मनाई जा रही है। सिख समुदाय के लोग इस दिन को प्रकाश पर्व के रूप में मनाते हैं। इस दिन प्रभात फेरी निकाली जाती है गुरुद्वारों में सबद, कीर्तन, अरदास और लंगर का आयोजन होता है। एक महान योद्धा, कवि और विचारक गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पन्थ के स्थापना की थी। उन्होंने मुगल बादशाह के साथ कई युद्ध किये और ज्यादातर में में विजय हासिल की। उनके पिता सिक्ख धर्म के नौवे गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी देवी थी। उन्होंने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में एक बड़ी सभा का आयोजन कर खालसा पंथ की स्थापना की थी।
नौ वर्ष की उम्र में सम्भाली गद्दी
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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर 666 ईस्वी में पटना साहिब में श्री तेगबहादुर जी जे घर माता गुजरी जी की कोख से हुआ। सिखों के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह का जन्म बिहार के पटना साहिब में 1666-1708 के बीच हुआ था। जूूूूलियन कैलेंडर के अनुसार गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में 22 दिसंबर 1666 को हुआ था। लेकिन वर्तमान समय में जूलियन कैलेंडर मान्य नहीं है।
वहीं ग्रेगोरियन कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद का जन्म 1 जनवरी 1667 को हुआ था। लेकिन इन दोनों से इतर हिन्दू कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष, शुक्लपक्ष सप्तमी 1723 विक्रम संवत को हुआ था। वहीं नानकशाही कैलेंडर के अस्तित्व में आने के बाद गुरु गोविंद सिंह के जन्म को पहले 6 जनवरी माना गया और फिर बाद में इसे बदलकर 5 जनवरी कर दिया गया. लेकिन इसे लेकर भी अलग-अलग विचारधारा सामने आने लगी।
गुरु गोविंद सिंह के जन्म सिख समुदाय में गुरु गोविंद सिंह के जन्मदिन को गुरु गोविंद जयंती या गुरु पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
श्री तेगबहादुर जी उस समय सिखी के प्रचार के लिए देश का भ्रमण कर रहे थे | उन्होंने अपने परिवार को पटना साहिब में ठहराया तथा स्वयं असम की ओर चले गये | गुरु जी जब बांग्लादेश पहुचे तो तो उनको गुरु गोबिंद सिंह जी जन्म की सुचना मिली। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की कम उम्र ही थी जब श्री तेगबहादुर जी ने श्री आनन्दपुर साहिब आकर परिवार को बुला लिया।
जिस समय उनका जन्म हुआ तब यहा मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था। उसकी शाही सेना भारतीय जनता पर बहुत जुल्म किया करती थी और उसने देश भर में अपने सभी गर्वनरो को आदेश जारी कर दिया कि हिन्दुओ के मन्दिर गिरा दे। कश्मीर का गर्वनर इफ्तिखार खान था जिसने बादशाह के आदेशो को लागू करने की ठान ली। कश्मीर में मन्दिर गिरने लगे और हिन्दुओ को मुसलमान बनाया जाने लगा।
ऐसी नाजुक स्थिति में जब कश्मीरी पंडितो के एक दल ने इनके पिता गुरु तेग बहादुर से सहायता की याचना की तो पुत्र गोबिंद ने अपने पिता से कहा “पिताजी धर्म की रक्षा के लिए आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है ”। इस तरह हिंदुस्तान में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए श्री गोविन्द सिंह जी ने बाल उम्र में ही अपने पिताजी को दिल्ली की तरफ चलाया। बाद में औरंगजेब के आदेश पर श्री तेगबहादुर जी को शहीद कर दिया गया।
गुरु जी की शहीदी उपरान्त श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने सभी सिखों को शस्त्रधारण करने तथा बढिया घोड़े रखने के लिए उसी तरह आदेश जारी कर दिया, जिस तरह श्री अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद श्री गुरु हरगोविन्द साहिब जी ने किया था। पिता गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद गोबिंद राय को नौ वर्ष की आयु में 11 नवम्बर 1675 को विधिवत रूप से गद्दी पर बैठाया गया। इसके बाद सबसे पहले गोबिंद राय ने अपने नाम के साथ सिंह जोड़ा और समस्त सिखों को अपने नाम के साथ सिंह जोड़ने को कहा और वो गोबिंद सिंह बन गए।
खालसा पन्थ की स्थापना
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गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) द्वारा 1699 में खालसा पन्थ की स्थापना की गयी | खालसा शब्द शुद्धता का पर्याय है अर्थात जो मन, वचन और कर्म से शुद्द हो और समाज के प्रति समपर्ण का भाव रखता हो, वही खालसा पन्थ को स्वीकार कर सकता है। उन्होंने पंज प्यारे की नई बात कही। पंज प्यारे देश के विभिन्न भागो से आये समाज के अलग अलग जाति और सम्प्रदाय के पांच बहादुर लोग थे जिन्हें एक ही कटोरे से प्रसाद पिलाकर सिखों के बीच समानता और आत्मसम्मान की भावना को जागृत किया और उन्हें एकता के सूत्र में बाधने की कोशिश की। उन्होंने कहा “मनुष्य की जाति सभी एक है “।
श्री आनन्दपुर साहिब में रहते हुए पहाडी राजाओ ने गुरूजी से लड़ाई जारी रखी पर जीत हमेशा गुरूजी की होती रही। 1704 ईस्वी में जब गुरूजी ने श्री आनन्दपुर साहिब का किला छोड़ दिया जिस कारण गुरूजी का सारा परिवार बिछड़ गया। चमकौर साहिब की एक कच्ची गली में गुरूजी ने अपने 40 सिंहो सहित 10हजार मुगल सेना का सामना किया | यहा गुरूजी के दो बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह तथा बाबा झुजार सिंह शहीद हुए |
गुरुजी के छोटे साहिबजादो बाबा जोरावर सिंह तथा बाबा फतेह सिंह सिंह जी को सरहिंद के वजीर खान के आदेश से जिन्दा ही दीवारों में चुनवा दिया। बाद में बाबा चंदा सिंह ने नांदेड से पंजाब आकर साहिबजादो की शहीदी का बदला लिया। गुरूजी ने साबो की तलवंडी में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पुन: सम्पादन किया तथा अपने पिता श्री तेग बहादुर जी की वाणी को अलग अलग रागों में दर्ज किया |
गुरु गोबिंद सिंह के अंतिम दिन
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1707 ईस्वी में करीब गोबिंद सिंह महाराष्ट्र के नांदेड चले गये जहा उन्होंने माधो दास वैरागी को अमृत संचार कर बाबा बन्दा सिंह बहादुर बनाया तथा जुल्म का सामना करने के लिए पंजाब की तरफ भेजा | नांदेड में 2 विश्वासघाती पठानों ने गुरूजी पर छुरे से वार कर दिया | गुरूजी ने अपनी तलवार से एक पठान को तो मौके पर ही मार दिया जबकि दूसरा सिखों के हाथो मारा गया | गोबिंद सिंह जी (Guru Gobind Singh) के जख्म काफी गहरे थे तथा 7 अक्टूबर 1708 ईस्वी को उनकी ज्योत ज्योत में समा गई। वो गुरु ग्रन्थ साहिब की को गुरुगद्दी दे गये।
त्याग की भावना से पूर्ण
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वह संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषा के जानकार थे। वे कवि भी थे जिन्होंने पंजाबी भाषा में तो सिर्फ एक रचना “चंडी दीवार ” लिखी शेष कई रचनाये हिंदी भाषा में रची। महत्वपूर्ण रचनाये जफरनामा और विचित्र नाटक है। इन्होने जीवन में अनेक लड़ाईया लड़ी, इनमे भंगानी का युद्ध, चमकौर का युद्ध, मुक्तसर का युद्ध और आनन्द साहिब का युद्ध प्रसिद्ध है। चमकौर युद्ध में गुरूजी के 40 सिखों की फ़ौज ने मुगल शाही सेना के दस हजार सैनिको से दिलेरी के साथ टक्कर ली थी | इसमें दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह और झुजार सिंह शहीद हो गये थे। बाद में मौका मिलने पर दुश्मनों ने उनके दो और पुत्रो को भी दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था। इसी दौरान माता गुजरी देवी का भी देहांत हो गया।
मर्यादित आचरण की दी सीख
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गुरूजी की प्रतिभा, साहस से औरंगजेब तथा अन्य सूबेदार सदैव आतंकित रहते थे। मौका पाकर गुरु गोबिंद सिंह को सरहिंद के नवाब वजीरशाह ने धिखे से घायल कर डाला। महज 41 वर्ष की उम्र में जब उन्हें अनुमान हो गया था कि उनका अंतिम समय आ गया है तो उन्होंने सिख संगत को बुलाया और साथ में गुरु ग्रन्थ साहिब (सिक्खों की धार्मिक पुस्तक) लाने को कहा। फिर खालसा पन्थ के लोगो को सदा मर्यादित आचरण करने, देशप्रेम करने और दीन दुखियो की सहायता करने की सीख दी। उन्होंने कहा “संतो मेरे बाद अब कोई भी जीवित व्यक्ति इस गुरु की गद्दी पर विराजमान नही होगा, इस गुरु गद्दी पर गुरु ग्रन्थ साहिब विराजमान रहेंगे, अब आप लोग उन्ही से अपना मार्गदर्शन करना और उन्ही से आदेश प्राप्त करना”।
उदार हृदय के व्यक्ति
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शक्ति सम्पन्न व्यक्ति आमतौर पर अभिमानी हो जाता है लेकिन गुरु गोबिंद सिंह जी वीर होने के साथ ही उदार हृदय के व्यक्ति थे। सहृदयता इनमे बचपन से ही मौजूद थी। इनके बचपन की एक रोचक घटना है जो गुरु गोविन्द सिंह की उदारता और दया को दर्शाता है। गोबिंद एक बुढी औरत की सूत कातने के लिए रखी पुनिया बिखेर देते थे | इससे दुखी होकर वह गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी के पास शिकायत लेकर पहुच जाती। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती। माता गुजरी ने गोबिंद सिंह से पूछा “तुम बुढी स्त्री को परेशान क्यों करते हो ?” जवाब में गोबिंद सिंह जी ने कहा उसकी गरीबी दूर करने के लिए अगर मै उसे परेशान नही करूंगा तो तुम उसे पैसे कैसे दोगी ”। गोबिंद सिंह जी की यही उदारता बड़े होने पर भी बनी रही। मुगलों से युद्ध के दौरान इन्हें अपनी सन्तान को खोना पड़ा। इसके बावजूद भी अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को दिल्ली के तख्त पर बैठाने में इन्होने सहायता की।
जन्मस्थान पर बना गुरुद्वारा
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बचपन से ही बालक गोबिंद राय अन्य सभी बालको से अलग स्वभाव के थे। वे धनुष बाण, कृपाण, कटार, भाला, तलवार आदि हथियारों को खिलौना समझते है और कम उम्र में ही इस चलाने में दक्षता प्राप्त कर ली थी।
गुरु गोबिंद सिंह के बचपन का शुरुवाती हिस्सा इनके ननिहाल पटना में गुजरा। पटना में उनके जन्म स्थान पर गुरुद्वारा का निर्माण किया गया है। यह तख्त श्री हरमिंदर साहिब, पटना साहिब के नाम से मशहूर है सिक्खों के दसवे गुरु के जन्म स्थान के दर्शन करने के लिए पुरी देश दुनिया से श्रुधालू यहा आते है। इस गुरुद्वारा का निर्माण सिख राजवंश के पहले महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था। पहली बार इसका निर्माण 18वी शताब्दी में किया गया था।
शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
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#VijetaMalikBJP
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"सवा लाख से एक लड़ावाँ ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ" का उद्घोष करने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरू थे। उन्हों ही सिख समुदाय को एकजुट करके “खालसा पंथ” की स्थापना की। गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही सिखों को “पंज प्यारे” और “पंच ककार” दिए। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंति आज 09 जनवरी, दिन रविवार को मनाई जा रही है। सिख समुदाय के लोग इस दिन को प्रकाश पर्व के रूप में मनाते हैं। इस दिन प्रभात फेरी निकाली जाती है गुरुद्वारों में सबद, कीर्तन, अरदास और लंगर का आयोजन होता है। एक महान योद्धा, कवि और विचारक गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पन्थ के स्थापना की थी। उन्होंने मुगल बादशाह के साथ कई युद्ध किये और ज्यादातर में में विजय हासिल की। उनके पिता सिक्ख धर्म के नौवे गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी देवी थी। उन्होंने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में एक बड़ी सभा का आयोजन कर खालसा पंथ की स्थापना की थी।
नौ वर्ष की उम्र में सम्भाली गद्दी
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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर 666 ईस्वी में पटना साहिब में श्री तेगबहादुर जी जे घर माता गुजरी जी की कोख से हुआ। सिखों के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह का जन्म बिहार के पटना साहिब में 1666-1708 के बीच हुआ था। जूूूूलियन कैलेंडर के अनुसार गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में 22 दिसंबर 1666 को हुआ था। लेकिन वर्तमान समय में जूलियन कैलेंडर मान्य नहीं है।
वहीं ग्रेगोरियन कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद का जन्म 1 जनवरी 1667 को हुआ था। लेकिन इन दोनों से इतर हिन्दू कैलेंडर का मानना है कि गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष, शुक्लपक्ष सप्तमी 1723 विक्रम संवत को हुआ था। वहीं नानकशाही कैलेंडर के अस्तित्व में आने के बाद गुरु गोविंद सिंह के जन्म को पहले 6 जनवरी माना गया और फिर बाद में इसे बदलकर 5 जनवरी कर दिया गया. लेकिन इसे लेकर भी अलग-अलग विचारधारा सामने आने लगी।
गुरु गोविंद सिंह के जन्म सिख समुदाय में गुरु गोविंद सिंह के जन्मदिन को गुरु गोविंद जयंती या गुरु पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
श्री तेगबहादुर जी उस समय सिखी के प्रचार के लिए देश का भ्रमण कर रहे थे | उन्होंने अपने परिवार को पटना साहिब में ठहराया तथा स्वयं असम की ओर चले गये | गुरु जी जब बांग्लादेश पहुचे तो तो उनको गुरु गोबिंद सिंह जी जन्म की सुचना मिली। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की कम उम्र ही थी जब श्री तेगबहादुर जी ने श्री आनन्दपुर साहिब आकर परिवार को बुला लिया।
जिस समय उनका जन्म हुआ तब यहा मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था। उसकी शाही सेना भारतीय जनता पर बहुत जुल्म किया करती थी और उसने देश भर में अपने सभी गर्वनरो को आदेश जारी कर दिया कि हिन्दुओ के मन्दिर गिरा दे। कश्मीर का गर्वनर इफ्तिखार खान था जिसने बादशाह के आदेशो को लागू करने की ठान ली। कश्मीर में मन्दिर गिरने लगे और हिन्दुओ को मुसलमान बनाया जाने लगा।
ऐसी नाजुक स्थिति में जब कश्मीरी पंडितो के एक दल ने इनके पिता गुरु तेग बहादुर से सहायता की याचना की तो पुत्र गोबिंद ने अपने पिता से कहा “पिताजी धर्म की रक्षा के लिए आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है ”। इस तरह हिंदुस्तान में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए श्री गोविन्द सिंह जी ने बाल उम्र में ही अपने पिताजी को दिल्ली की तरफ चलाया। बाद में औरंगजेब के आदेश पर श्री तेगबहादुर जी को शहीद कर दिया गया।
गुरु जी की शहीदी उपरान्त श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने सभी सिखों को शस्त्रधारण करने तथा बढिया घोड़े रखने के लिए उसी तरह आदेश जारी कर दिया, जिस तरह श्री अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद श्री गुरु हरगोविन्द साहिब जी ने किया था। पिता गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद गोबिंद राय को नौ वर्ष की आयु में 11 नवम्बर 1675 को विधिवत रूप से गद्दी पर बैठाया गया। इसके बाद सबसे पहले गोबिंद राय ने अपने नाम के साथ सिंह जोड़ा और समस्त सिखों को अपने नाम के साथ सिंह जोड़ने को कहा और वो गोबिंद सिंह बन गए।
खालसा पन्थ की स्थापना
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गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) द्वारा 1699 में खालसा पन्थ की स्थापना की गयी | खालसा शब्द शुद्धता का पर्याय है अर्थात जो मन, वचन और कर्म से शुद्द हो और समाज के प्रति समपर्ण का भाव रखता हो, वही खालसा पन्थ को स्वीकार कर सकता है। उन्होंने पंज प्यारे की नई बात कही। पंज प्यारे देश के विभिन्न भागो से आये समाज के अलग अलग जाति और सम्प्रदाय के पांच बहादुर लोग थे जिन्हें एक ही कटोरे से प्रसाद पिलाकर सिखों के बीच समानता और आत्मसम्मान की भावना को जागृत किया और उन्हें एकता के सूत्र में बाधने की कोशिश की। उन्होंने कहा “मनुष्य की जाति सभी एक है “।
श्री आनन्दपुर साहिब में रहते हुए पहाडी राजाओ ने गुरूजी से लड़ाई जारी रखी पर जीत हमेशा गुरूजी की होती रही। 1704 ईस्वी में जब गुरूजी ने श्री आनन्दपुर साहिब का किला छोड़ दिया जिस कारण गुरूजी का सारा परिवार बिछड़ गया। चमकौर साहिब की एक कच्ची गली में गुरूजी ने अपने 40 सिंहो सहित 10हजार मुगल सेना का सामना किया | यहा गुरूजी के दो बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह तथा बाबा झुजार सिंह शहीद हुए |
गुरुजी के छोटे साहिबजादो बाबा जोरावर सिंह तथा बाबा फतेह सिंह सिंह जी को सरहिंद के वजीर खान के आदेश से जिन्दा ही दीवारों में चुनवा दिया। बाद में बाबा चंदा सिंह ने नांदेड से पंजाब आकर साहिबजादो की शहीदी का बदला लिया। गुरूजी ने साबो की तलवंडी में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पुन: सम्पादन किया तथा अपने पिता श्री तेग बहादुर जी की वाणी को अलग अलग रागों में दर्ज किया |
गुरु गोबिंद सिंह के अंतिम दिन
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1707 ईस्वी में करीब गोबिंद सिंह महाराष्ट्र के नांदेड चले गये जहा उन्होंने माधो दास वैरागी को अमृत संचार कर बाबा बन्दा सिंह बहादुर बनाया तथा जुल्म का सामना करने के लिए पंजाब की तरफ भेजा | नांदेड में 2 विश्वासघाती पठानों ने गुरूजी पर छुरे से वार कर दिया | गुरूजी ने अपनी तलवार से एक पठान को तो मौके पर ही मार दिया जबकि दूसरा सिखों के हाथो मारा गया | गोबिंद सिंह जी (Guru Gobind Singh) के जख्म काफी गहरे थे तथा 7 अक्टूबर 1708 ईस्वी को उनकी ज्योत ज्योत में समा गई। वो गुरु ग्रन्थ साहिब की को गुरुगद्दी दे गये।
त्याग की भावना से पूर्ण
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वह संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषा के जानकार थे। वे कवि भी थे जिन्होंने पंजाबी भाषा में तो सिर्फ एक रचना “चंडी दीवार ” लिखी शेष कई रचनाये हिंदी भाषा में रची। महत्वपूर्ण रचनाये जफरनामा और विचित्र नाटक है। इन्होने जीवन में अनेक लड़ाईया लड़ी, इनमे भंगानी का युद्ध, चमकौर का युद्ध, मुक्तसर का युद्ध और आनन्द साहिब का युद्ध प्रसिद्ध है। चमकौर युद्ध में गुरूजी के 40 सिखों की फ़ौज ने मुगल शाही सेना के दस हजार सैनिको से दिलेरी के साथ टक्कर ली थी | इसमें दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह और झुजार सिंह शहीद हो गये थे। बाद में मौका मिलने पर दुश्मनों ने उनके दो और पुत्रो को भी दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था। इसी दौरान माता गुजरी देवी का भी देहांत हो गया।
मर्यादित आचरण की दी सीख
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गुरूजी की प्रतिभा, साहस से औरंगजेब तथा अन्य सूबेदार सदैव आतंकित रहते थे। मौका पाकर गुरु गोबिंद सिंह को सरहिंद के नवाब वजीरशाह ने धिखे से घायल कर डाला। महज 41 वर्ष की उम्र में जब उन्हें अनुमान हो गया था कि उनका अंतिम समय आ गया है तो उन्होंने सिख संगत को बुलाया और साथ में गुरु ग्रन्थ साहिब (सिक्खों की धार्मिक पुस्तक) लाने को कहा। फिर खालसा पन्थ के लोगो को सदा मर्यादित आचरण करने, देशप्रेम करने और दीन दुखियो की सहायता करने की सीख दी। उन्होंने कहा “संतो मेरे बाद अब कोई भी जीवित व्यक्ति इस गुरु की गद्दी पर विराजमान नही होगा, इस गुरु गद्दी पर गुरु ग्रन्थ साहिब विराजमान रहेंगे, अब आप लोग उन्ही से अपना मार्गदर्शन करना और उन्ही से आदेश प्राप्त करना”।
उदार हृदय के व्यक्ति
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शक्ति सम्पन्न व्यक्ति आमतौर पर अभिमानी हो जाता है लेकिन गुरु गोबिंद सिंह जी वीर होने के साथ ही उदार हृदय के व्यक्ति थे। सहृदयता इनमे बचपन से ही मौजूद थी। इनके बचपन की एक रोचक घटना है जो गुरु गोविन्द सिंह की उदारता और दया को दर्शाता है। गोबिंद एक बुढी औरत की सूत कातने के लिए रखी पुनिया बिखेर देते थे | इससे दुखी होकर वह गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी के पास शिकायत लेकर पहुच जाती। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती। माता गुजरी ने गोबिंद सिंह से पूछा “तुम बुढी स्त्री को परेशान क्यों करते हो ?” जवाब में गोबिंद सिंह जी ने कहा उसकी गरीबी दूर करने के लिए अगर मै उसे परेशान नही करूंगा तो तुम उसे पैसे कैसे दोगी ”। गोबिंद सिंह जी की यही उदारता बड़े होने पर भी बनी रही। मुगलों से युद्ध के दौरान इन्हें अपनी सन्तान को खोना पड़ा। इसके बावजूद भी अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को दिल्ली के तख्त पर बैठाने में इन्होने सहायता की।
जन्मस्थान पर बना गुरुद्वारा
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बचपन से ही बालक गोबिंद राय अन्य सभी बालको से अलग स्वभाव के थे। वे धनुष बाण, कृपाण, कटार, भाला, तलवार आदि हथियारों को खिलौना समझते है और कम उम्र में ही इस चलाने में दक्षता प्राप्त कर ली थी।
गुरु गोबिंद सिंह के बचपन का शुरुवाती हिस्सा इनके ननिहाल पटना में गुजरा। पटना में उनके जन्म स्थान पर गुरुद्वारा का निर्माण किया गया है। यह तख्त श्री हरमिंदर साहिब, पटना साहिब के नाम से मशहूर है सिक्खों के दसवे गुरु के जन्म स्थान के दर्शन करने के लिए पुरी देश दुनिया से श्रुधालू यहा आते है। इस गुरुद्वारा का निर्माण सिख राजवंश के पहले महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था। पहली बार इसका निर्माण 18वी शताब्दी में किया गया था।
शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
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