मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया
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भारत रत्न से सम्मानित सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की आज 158वीं जयंती है। उन्हीं की याद में भारत में हर साल 15 सितंबर को इंजीनियर्स डे (अभियंता दिवस) मनाया जाता है। विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। यही कारण है कि उन्हें देश के एक महान इंजीनियर के तौर पर जाना जाता है।
विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर, 1861 को एक तेलुगु परिवार में हुआ था। वह 100 वर्षों से अधिक जीवित रहे थे और अंत तक सक्रिय जीवन ही व्यतीत किया था। उनसे जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है कि एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन (दीर्घायु) का रहस्य क्या है?' तब डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?'
अंग्रेजों को लेकर भी उनसे जुड़ा एक किस्सा काफी प्रसिद्ध है। दरअसल, यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था।
अचानक उस व्यक्ति ने उठकर ट्रेन की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती ट्रेन तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, 'जंजीर किसने खींची है?' उस व्यक्ति ने बेझिझक उत्तर दिया, 'मैंने खींची है।' कारण पूछने पर उसने बताया, 'मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग (220 गज) की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।'
गार्ड ने पूछा, 'आपको कैसे पता चला?' वह बोला, 'श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है। पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।' गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रह गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। तब तक दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे।
जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, 'आप कौन हैं?' उस व्यक्ति ने कहा, 'मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया है।' यह नाम सुन ट्रेन में बैठे सारे अंग्रेज स्तब्ध रह गए।
दरअसल उस समय तक देश में डॉ. विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी। ट्रेन में बैठे सारे लोग उनसे माफी मांगने लगे। तब डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'आप सब ने मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।'
निष्पक्ष विश्वेश्वरैया
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उस समय वह क़रीब 92 वर्ष के थे, तब उन्हें यह सुझाव मिला कि गंगा पर पुल बनाने के लिए वह विभिन्न राज्य सरकारों के प्रस्तावों की जांच करें। उन्हें बिहार में मोकामेह, राजमहल, सकरीगली घाट, और पश्चिम बंगाल में फ़रक्का में से दो स्थलों को चुनना था। उन्हें इसलिए चुना गया क्योंकि 'वह ईमानदार, चरित्रवान व उदार राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले इंजीनियर हैं, जो पक्षपातरहित निर्णय ले सकते हैं। स्थानीय दवाबों से ऊपर उठ कर कार्य कर सकते हैं और उनके विचारों का सब लोग सम्मान करते हैं, एवं वे सब उनको स्वीकार करते हैं।' विश्वेश्वरैया उन स्थलों पर गये। उन्होंने सह पायलट की सीट पर, कॉकपिट में बैठकर, नदी और नदी के तटों का बारीकी से जांच करने के लिये हवाई सर्वेक्षण किया। ताकि पुल बनाने के लिए सही स्थल को चुना जा सके। इस दौरे के दौरान वह पटना में रुके। राज्यपाल एम. एस. आणे ने उन्हें राजभवन में रहने का निमंत्रण दिया। विश्वेश्वरैया ने यह कहते हुए अस्वीकार किया कि यह उनके लिए अनुचित होगा कि वह राज्यपाल की मेहमानवाज़ी का आनन्द उठायें। जबकि समिति के अन्य सदस्य होटलों में रहेंगे। राज्यपाल ने तब समिति के सारे सदस्यों को आमंत्रित किया। बाद में एम. एस. आणे ने कहा, 'सुविधा से पहले कर्तव्य विश्वेश्वरैया का आदर्श है।' अन्तत: विश्वेश्वरैया ने पुल बनाने के लिए मोकामेह और फ़रक्का नामक स्थानों का सुझाव दिया।
भारत रत्न
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अपनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान् व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, 'अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।'
अंतिम समय
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102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, "जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।" जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन वह अपने कार्यों के द्वारा अमर हो गये।
अन्त समय तक भी उनका ज्ञान पाने का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह एकाग्रचित्त होकर ज्ञान की तलाश करते रहे। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उससे उन्हें प्रकृति और प्रकृति में निहित शक्ति व ऊर्जा को जन कल्याण के लिए काम में लगाने में सहायता मिली। विश्वेश्वरैया महान् व्यक्ति के रूप में नहीं जन्मे थे। न ही महानता उन पर जबरदस्ती थोपी गई थी। कठिन परिश्रम, ज्ञान को प्राप्त करने के अथक प्रयास, परियोजनाओं व योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए ज्ञान का उपयोग, जिसके द्वारा जनसमुदाय की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारने के अधिक अवसर मिले, द्वारा महानता प्राप्त की। विश्वेश्वरैया में बहुमूर्तिदर्शी जैसा कुछ था। जितनी बार भी हम उन्हें देखते हैं, उनकी महानता का एक नया उदाहरण सामने आता है। चाहे उन्होंने किसी भी दृष्टिकोण से सोचा हो, उनकी महानता का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। उनकी गहन राष्ट्रीयता की भावना ही है जो हमारा ध्यान आज भी उनकी ओर आकर्षित करती है। दूसरी ओर हम उनके काम के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हैं, और आगे देखें तो ग़रीबों के प्रति उनके स्थाई प्रेम को देखते हैं, और फिर देखें तो हम उनके अच्छे स्वास्थ्य में झांकते हैं। उनकी महानता के पहलू असीमित हैं।
शत-शत नमन करूँ मैं आपको 🌺🌺🌺🌺
🙏🙏
#VijetaMalikBJP