राम प्रसाद 'बिस्मिल

राम प्रसाद 'बिस्मिल' 
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जीवन परिचय :
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पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनके लिखे ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ जैसे अमर गीत ने हर भारतीय के दिल में जगह बनाई और अंग्रेज़ों से भारत की आज़ादी के लिए वो चिंगारी छेड़ी जिसने ज्वाला का रूप लेकर ब्रिटिश शासन के भवन को लाक्षागृह में परिवर्तित कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य को दहला देने वाले काकोरी काण्ड को रामप्रसाद बिस्मिल ने ही अंजाम दिया था।

जन्म :
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ज्येष्ठ शुक्ल 11 संवत् 1954 सन 1897 में पंडित मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म मैनपुरी में हुआ था। सम्भवत: वहाँ बालक का ननिहाल रहा हो। इस विषय में श्री व्यथित हृदय ने लिखा है- 'यहाँ यह बात बड़े आश्चर्य की मालूम होती है कि बिस्मिल के दादा और पिता ग्वालियर के निवासी थे। फिर भी उनका जन्म मैनपुरी में क्यों हुआ? हो सकता है कि मैनपुरी में बिस्मिल जी का ननिहाल रहा हो।' इस पुत्र से पूर्व एक पुत्र की मृत्यु हो जाने से माता-पिता का इसके प्रति चिन्तित रहना स्वाभाविक था। अत: बालक के जीवन की रक्षा के लिए जिसने जो उपाय बताया, वही किया गया। बालक को अनेक प्रकार के गण्डे ताबीज आदि भी लगाये गए। बालक जन्म से ही दुर्बल था। जन्म के एक-दो माह बाद इतना दुर्बल हो गया कि उसके बचने की आशा ही बहुत कम रह गई थी। माता-पिता इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि कहीं यह बच्चा भी पहले बच्चे की तरह ही चल न बसे। इस पर लोगों ने कहा कि सम्भवत: घर में ही कोई बच्चों का रोग प्रवेश कर गया है। इसके लिए उन्होंने उपाय सुझाया। बताया गया कि एक बिल्कुल सफ़ेद खरगोश बालक के चारों ओर घुमाकर छोड़ दिया जाए। यदि बालक को कोई रोग होगा तो खरगोश तुरन्त मर जायेगा। माता-पिता बालक की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, अत: ऐसा ही किया गया। आश्चर्य की बात कि खरगोश तुरन्त मर गया। इसके बाद बच्चे का स्वास्थ्य दिन पर दिन सुधरने लगा। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

शिक्षा :
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सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पंडित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अत: घर में हिन्दी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था। पंडित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बन्दूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा हो गया था। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-

'बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे 'उ' लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गये तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे 'उ' लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बन्दूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।'

इसके बाद बालक रामप्रसाद ने पढ़ाई में कभी असावधानी नहीं की। वह परिश्रम से पढ़ने लगे। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किन्तु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहत दु:ख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेज़ी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किन्तु पिता पंडित मुरलीधर अंग्रेज़ी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अन्तत: मां के कहने पर उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेज़ी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्य समाज के सम्पर्क में आये, जिससे उनके जीवन की दशा ही बदल गई।

नया विश्वास-नया जीवन :
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जिन दिनों राम प्रसाद अपने घर के पास वाले मन्दिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्य समाजी विचारधारा के थे। उनका मन्दिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना जाना था। राम प्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। राम प्रसाद ने संध्या विषय में उनसे विस्तार से पूछा। मुंशी जी ने संध्या का महत्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने राम प्रसाद को आर्य समाज के सिद्धान्तों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया। सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर राम प्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नये विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ। उन्हें एक नया जीवन मिला। उन्हें सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्व आदि समझ में आया। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली।

कुमार सभा की सदस्यता :
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आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मन्दिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबन्ध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। राम प्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारम्भ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे तथा बाज़ारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का ख़तरा दिखाई देने लगा। अत: बाज़ारों में व्याख्यान देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परन्तु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अत: कुमार सभा के लिए आर्य समाज में ताला लगा दिया गया। उन्हें मन्दिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई कि उन्होंने मन्दिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जायेगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना सम्भव नहीं था। अत: कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्य समाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।

अखिल भारतीय कुमार सभा का सम्मेलन :
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कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही ‘अखिल भारतीय कुमार सभा’ का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किन्तु उनके पिताजी तथा दादाजी इससे सहमत नहीं हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हे वहाँ भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहाँ जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डाँट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। राम प्रसाद लखनऊ गए तथा अखिल भारतीय कुमार सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहाँपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।

विदेशी राज्य के विरुद्ध प्रतिज्ञा :
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लाहौर षड़यंत्र के मामले में सन 1915 में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी भाई परमानंद को फांसी सुना दी गई। रामप्रसाद बिस्मिल भाई परमानंद के विचारों से प्रभावित थे और उनके हृदय में इस महान् देशभक्त के लिए अपार श्रद्धा थी। इस फैसले का समाचार पढ़कर बिस्मिल का देशानुराग जाग पड़ा। उन्होंने उसी समय अंग्रेज़ों के अत्याचारों को मिटाने तथा मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सतत प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा ली। यद्यपि भाई परमानंद की फांसी की सज़ा को बाद में महामना मदनमोहन मालवीय तथा देशबंधु एण्ड्र्यूज के प्रयत्नों से आजन्म कारावास में बदल दिया गया, किन्तु रामप्रसाद बिस्मिल जीवन पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे। इस प्रतिज्ञा के बाद उनका एक नया जीवन प्रारम्भ हुआ। पहले वह एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के पुत्र थे, इसके बाद वह आर्यसमाज से प्रभावित हुए और एक सच्चे सात्त्विक आर्यसमाजी बने तथा इस प्रतिज्ञा के बाद उनका जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित हो गया। यह उनके हृदय में देश प्रेम के बीज का प्रथम अंकुरण था।

क्रांतिकारियों से संपर्क :
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लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए जाने पर रामप्रसाद बिस्मिल कुछ क्रांतिकारी विचारों वाले युवकों के सम्पर्क में आए। इन युवकों का मत था कि देश की तत्कालीन दुर्दशा के एकमात्र कारण अंग्रेज़ ही थे। रामप्रसाद भी इन विचारों से प्रभावित हुए। अत: देश की स्वतंत्रता के लिए उनके मन कुछ विशेष काम करने का विचार आया। यहीं उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि क्रांतिकारियों की एक गुप्त समिति भी है। इस समिति के मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारी मार्ग से देश की स्वतंत्रता प्राप्त करना था। वह सब ज्ञात होने पर बिस्मिल के मन में भी इस समिति का सदस्य बनने की तीव्र इच्छा हुई। वह समिति के कार्यों में सहयोग देने लगे। अपने एक मित्र के माध्यम से इसके सदस्य बन गए और थोड़े ही समय में वह समिति की कार्यकारिणी के सदस्य बना लिये गए। इस समिति के सदस्य बनने के बाद बिस्मिल फिर अपने घर शाहजहाँपुर आ गए। समिति के पास आय का कोई स्रोत न होने से धन की बहुत कमी थी। अत: इसके लिए कुछ धन संग्रह करने के लिए उनके मन में एक पुस्तक प्रकाशित करने का विचार आया। पुस्तक प्रकाशित करने के लिए भी रुपयों की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने एक चाल चली। अपनी माँ से कहा कि वह कुछ काम करना चाहते हैं, इससे अवश्य लाभ होगा, अत: इसके लिए पहले कुछ रुपयों की आवश्यकता है। माँ ने उन्हें दो सौ रुपये दिए। उन्होंने 'अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली' नाम की एक पुस्तक पहले ही लिख ली थी। पुस्तक को प्रकाशित करने का प्रबंध किया गया। इसके लिए फिर से दो सौ रुपयों की आवश्यकता पड़ी। इस बार भी माँ से दो सौ रुपये और लिए। पुस्तक प्रकाशित हुई। इसकी कुछ प्रतियां बिक गई, जिनसे लगभग छ: सौ रुपयों की आय हुई। पहले माँ से लिए हुए चार सौ रुपये लौटा दिए गए। फिर 'मातृदेवी' समिति की ओर से एक पर्चा प्रकाशित किया गया, जिसका शीर्षक था- 'देशवासियों के नाम संदेश'। समिति के सभी सदस्य और भी अधिक उत्साह से काम करने लगे। यह पर्चा संयुक्त प्रांत के अनेक ज़िलों में चिपकाया गया और वितरित किया गया। शीघ्र ही सरकार चौकन्नी हो गई, अत: संयुक्त प्रांत की सरकार ने इस पर्चे तथा पूर्व लिखित पुस्तक, दोनों को जब्त कर लिया।

काकोरी काण्ड :
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राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 10 लोगों ने सुनियोजित कार्रवाई के तहत यह कार्य करने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के काकोरी नामक स्थान पर देशभक्तों ने रेल विभाग की ले जाई जा रही संग्रहीत धनराशि को लूटा। उन्होंने ट्रेन के गार्ड को बंदूक की नोंक पर काबू कर लिया। गार्ड के डिब्बे में लोहे की तिज़ोरी को तोड़कर आक्रमणकारी दल चार हज़ार रुपये लेकर फरार हो गए। इस डकैती में अशफाकउल्ला, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, सचीन्द्र सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, राम प्रसाद बिस्मिल आदि शामिल थे। काकोरी षड्यंत्र मुक़दमे ने काफ़ी लोगों का ध्यान खींचा। इसके कारण देश का राजनीतिक वातावरण आवेशित हो गया।

महाप्रयाण :
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सभी प्रकार से मृत्यु दंड को बदलने के लिए की गयी दया प्रार्थनाओं के अस्वीकृत हो जाने के बाद बिस्मिल अपने महाप्रयाण की तैयारी करने लगे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। फांसी के तख्ते पर झूलने के तीन दिन पहले तक वह इसे लिखते रहे। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-

'आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि 19 दिसम्बर, 1927 ई. सोमवार (पौषकृष्ण 11 संवत 1984) को साढ़े छ: बजे प्रात: काल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत सीमा पर इहलीला संवरण करनी होगी।'

उन्हें इन दिनों गोरखपुर जेल की नौ फीट लम्बी तथा इतनी ही चौड़ी एक कोठरी में रखा गया था। इसमें केवल छ: फीट लम्बा, दो फीट चौड़ा दरवाज़ा था तथा दो फीट लम्बी, एक फीट चौड़ी एक खिड़की थी। इसी कोठरी में भोजन, स्नान, सोना, नित्य कर्म आदि सभी कुछ करना पड़ता था। मुश्किल से रात्रि में दो चार घण्टे नींद आ पाती थी। मिट्टी के बर्तनों में खाना, कम्बलों का बिस्तर, एकदम एकान्तिक जीवनचर्या यही उनके अंतिम दिन थे। इस सबका उन्होंने अपनी आत्मकथा में बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।

फांसी से एक दिन पूर्व :
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फांसी के एक दिन पूर्व बिस्मिल के पिता अंतिम मुलाकात के लिए गोरखपुर आये। कदाचित् माँ का हृदय इस आघात को सहन न कर सके, ऐसा विचार कर वह बिस्मिल की माँ को साथ नहीं लाये। बिस्मिल के दल के साथी शिव वर्मा को लेकर अंतिम बार पुत्र से मिलने जेल पहुँचे, किन्तु वहाँ पहुँचने पर उन्हें यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा कि माँ वहाँ पहले ही पहुँची थीं। शिव वर्मा को क्या कहकर अंदर ले जाएं, ऐसा कुछ सोच पाते, माँ ने शिव वर्मा को चुप रहने का संकेत किया और पूछने पर बता दिया। 'मेरी बहिन का लड़का है।' सब लोग अंदर पहुँचे, माँ को देखते ही बिस्मिल रो पड़े। उनका मातृ स्नेह आंखों से उमड़ पड़ा, किन्तु वीर जननी माँ ने एक वीरांगना की तरह पुत्र को उसके कर्तव्य का बोध कराते हुए ऊँचे स्वर में कहा-

'मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहादुर है, जिसके नाम से अंग्रेज़ सरकार भी कांपती है। मुझे नहीं पता था कि वह मौत से डरता है। यदि तुम्हें रोकर ही मरना था, तो व्यर्थ इस काम में क्यों आए।'

तब बिस्मिल ने कहा, 'ये मौत के डर के आंसू नहीं हैं। यह माँ का स्नेह है। मौत से मैं नहीं डरता माँ तुम विश्वास करो।' इसके बाद माँ ने शिव वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दया और कहा कि पार्टी के लिए जो भी संदेश देना हो, इनसे कह दो। माँ के इस व्यवहार से जेल के अधिकारी भी अत्यन्त प्रभावित हुए। इसके बाद उनकी अपने पिता जी से बातें हुईं, फिर सब लौट पड़े।

फांसी का दिन :
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19 दिसम्बर, 1927 की प्रात: बिस्मिल नित्य की तरह चार बजे उठे। नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की। अपनी माँ को पत्र लिखा और फिर महाप्रयाण बेला की प्रतिज्ञा करने लगे। नियत समय पर बुलाने वाले आ गए। 'वन्दे मातरम' तथा 'भारत माता की जय' का उद्घोष करते हुए बिस्मिल उनके साथ चल पड़े और बड़े मनोयोग से गाने लगे-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।

बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।

जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।

तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।

फांसी के तख्ते के पास पहुँचे। तख्ते पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की-
I Wish the downfall of British Empire
अर्थात 'मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ'   

इसके बाद उन्होंने परमात्मा का स्मरण करते हुए निम्नलिखित वैदिक मंत्रों का पाठ किया-

ऊं विश्वानि देव सावितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आ सुव।।

'हे परमात्मा! सभी अच्छाइयाँ हमें प्रदान करो और बुराइयों को हमसे दूर करो'   इत्यादि मंत्रों का पाठ करते हुए वह फांसी के फंदे पर झूल गये।

अंतिम संस्कार :
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जिस समय रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी लगी उस समय जेल के बाहर विशाल जनसमुदाय उनके अंतिम दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहा था। जेल के चारों ओर पुलिस का कड़ा पहरा था। शव जनता को दे दिया गया। जनता ने बिस्मिल की अर्थी को सम्मान के साथ शहर में घुमाया। लोगों ने उस पर सुगन्धित पदार्थ, फूल तथा पैसे बरसाये। हज़ारों लोग उनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए। उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ किया गया।

शत-शत नमन करु मैं आपको 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP


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