स्वामी दयानंद सरस्वती जी

स्वामी दयानन्द सरस्वती 

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भारत प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का देश रहा है । भगवान ने अनेक बार स्वयं अवतार लेकर इस भूमि को पवित्र किया है । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के रूप में इस धरती का परम कल्याण किया है ।

अनेक महान आध्यात्मिक गुरु उच्च कोटि के संत और समाज सुधारक इस देश में हुए । नव जागरण क्य शंख नाद करने वाले राजा राम मोहनराय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की भांति ही स्वामी दयानन्द का नाम भी अग्रगण्य है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टकारा गाँव में 12 फरवरी 1824 (फाल्गुन बदि दशमी संवत् 1881) को हुआ था।  मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण आपका नाम मूलशंकर रखा गया।  आपके पिता का नाम अम्बाशंकर था। आप बड़े मेधावी और होनहार थे।  मूलशंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।  दो वर्ष की आयु में ही आपने गायत्री मंत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीख लिया था। घर में पूजा-पाठ और शिव-भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान् शिव के प्रति बचपन से ही आपके मन में गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। अत: बाल्यकाल में आप शंकर के भक्त थे।  कुछ बड़ा होने पर पिता ने घर पर ही शिक्षा देनी शुरू कर दी।  मूलशंकर को धर्मशास्त्र की शिक्षा दी गयी। उसके बाद मूलशंकर की इच्छा संस्कृत पढने की हुई। चौदह वर्ष की आयु तक मूलशंकर ने सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, `सामवेद' और 'यजुर्वेद' का अध्ययन कर लिया था। ब्रह्मचर्यकाल में ही आप भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े।

मथुरा के स्वामी विरजानंद इनके गुरू थे।  शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई।

चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति इनके मन में विद्रोह हुआ और इक्कीस वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।

धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी।  वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया।  स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए।  "भारत, भारतीयों का है' यह अँग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था।  उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे।

अँग्रेजी सरकार स्वामी दयानंद से बुरी तरह तिलमिला गयी थी। स्वामीजी से छुटकारा पाने के लिए, उन्हें समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाने लगे। बहन और चाची की मृत्यु से इनमें विरक्ति भाव जागृत हो गया । सच्चे प्रभु की प्राप्ति और मृत्यु पर विजय पाने की इच्छा लिए स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया । शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् गुरु दक्षिणा में उनसे यही माँगा गया कि वे अपना समस्त जीवन वेदों के प्रचार में लगा दें ।

गुरु की आज्ञानुसार वे धर्म के प्रचार-प्रसार में निकल पड़े । साधु, ब्राह्मणों, विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । साधारण जनता को वेदों का उपदेश दिया । मूर्तिपूजा का विरोध और ‘ईश्वर का एक रूप है’ का प्रचार किया । सहस्त्रों हिन्दुओं को मुसलमान और ईसाई होने से बचाया ।

स्त्री शिक्षा का प्रचार किया । उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया । सती प्रथा का खण्डन और विधवाओं के पुन: विवाह के पक्ष में थे । जाति-पाति का कड़ा विरोध किया । अछूतों के उद्धार के लिए अनाथालय और विधवाश्रम खोले ।

वैदिक शिक्षा के प्रसार के लिए गुरुकुल बनाए। जिनमें गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) अधिक विख्यात है और वर्तमान समय में यह विश्वविद्यालय का रूप धारण कर चुका है । अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के कारण अनेक लोग इनके शत्रु हो गए और उन्होंने इन्हें मारने के अनेक षड्‌यंत्र रचे लेकिन वे असफल रहे ।
एक राजा को एक वेश्या के साथ बैठा देखकर उन्होंने राजा को कटु वचन कहे । इससे वेश्या चिढ़ गई और उसने एक विश्वास पात्र रसोइए को धन देकर दूध में पारा मिलवा दिया । अनेक उपचार कराने पर भी वह विष मुक्त न हो सके । 30 अक्टूबर सन् 1883 ई॰ को 59 वर्ष की अवस्था में दीपावली के दिन संध्या के समय आपका देहांत हो गया।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया।  उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया।  आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

स्वामी जी ने धर्म प्रचारार्थ अनेक पुस्तकें लिखी- संस्कार विधि, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय आदि । अहिन्दीभाषी होने पर भी हिन्दी और वेदों का प्रचार किया । रुढ़िवाद और कुरीतियों कै अन्धकार में डूबी हुई जनता को ज्ञान को प्रकाश दिया ।

आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, देशभक्त, एक संन्यासी, महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की पुण्यतिथि पर शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
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#VijetaMalikBJP


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