गणेश शंकर विद्यार्थी जी

हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी जी
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तुम भूल ना जाओ उनकी,

इसलिए लिखी ये कहानी,

जो शहीद हुए हैं उनकी,

ज़रा याद करो कुर्बानी...

🙏

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिलाकर रख दी थी।

आज हिंदी ज्ञानोदय के प्रतीक और हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती है। जिनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता मुंशी जयनारायण लाल ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे।

पत्रकारिता के ‘प्रताप’, गांधी जीके अनुयायी
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विद्यार्थी जी, उनकी पत्रकारिता का ‘प्रताप’, उस समय जी जनता के प्यारे अखबार ‘प्रताप’ की लोकप्रियता को हम नमन करते हैं। वह मूर्धन्य पत्रकार थे। वह क्रांतिकारी थे। वह हिंदी जाति के ज्ञानोदय के प्रतीक और हिंदी पत्रकारिता के पितामह कहे जाते रहेंगे। वह एक जीताजागता पत्रकारिता और साहित्य का संस्थान थे, जहां से रामवृक्ष बेनीपुरी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा जैसे साहित्यकारों का विकास हुआ तो वहीं भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की पत्रकारीय प्रतिभा का भी विकास हुआ. वह जितने बड़े पत्रकार थे, उतने ही बड़े क्रांतिकारी थे। वह किसान आंदोलनकारी थे। वह मजदूरों के नेता थे। वह मूकजन की आवाज़ थे।

वह गांधी जी के अनुयायी थे, तो वहीं क्रांतिकारियों के सबसे विश्वसनीय साथी थे। उनका ‘प्रताप’ अखबार क्रांतिकारियों का अड्डा था, जहा भेष बदलकर भगत सिंह, आजाद सहित तमाम क्रांतिकारी महीनों रहते थे। वहीं वह कांग्रेस के बड़े नेता भी थे जो यूनाइटेड प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) के कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी थे। रायबरेली में किसान आंदोलन पर जमींदारों-अंग्रेजों ने जब गोली चलवायी, तो वह वहां सबसे पहले पहुंचे, किसानों को संगठित किया, आवाज उठायी और ‘प्रताप’ में लेख लिखा- ‘डायरशाही ओ डायरशाही’, यह दूसरा जलियांवाला कांड है। जमीन पर गिरा लहू इस देश में सामंतशाही और साम्राज्यवाद दोनों की समाधि बनेगा। अंग्रेजों ने उन पर मुकदमा कर दिया। उनके पक्ष में 50 से ज्यादा गवाह पेश हुये जिसमें श्री कृष्ण मेहता आदि जैसे राष्ट्रीय नेता भी थे।

विद्यार्थी जी ने अपने तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदानंदन के साथ मिलकर 9 नवंबर 1913 को उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में ‘प्रताप’ की नींव डाली थी। जन्म काल से ही "प्रताप" का दफ्तर क्रांतिकारियों की शरण स्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र। विद्यार्थी ने महज पाठकों के लिए नही लिखा बल्कि नए लेखक पत्रकार तैयार करने और पत्रकारिता को मिशन बनाने की दिशा में भी काम किया। "प्रताप" के माध्यम से जन जागरण का अभियान चलाया गया।

जनआंदोलनों को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप बार-बार प्रताप संपादकों-प्रकाशकों को बार बार जेल तक जाना पड़ा, परंतु प्रताप अपने मूल्यों-सिद्धांतों से नहीं डिगा। इसीलिए आप कल्पना करें जब परिवहन के साधन सीमित थे, हर गांव में गिने चुने लोग पढ़े लिखे साक्षर होते थे. उस दौर में ‘प्रताप’ का सर्कुलेशन 10-15 हजार था. यही नही ‘प्रताप’ की लोकप्रियता का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते है जब 19 जून 1916 को ‘प्रताप’ में ‘दासता’ नामक कविता छापने के आरोप में राजद्रोह का आरोप लगाया गया और अखबार पर एक हजार रूपए का जुर्माना लगा दिया गया. विद्यार्थी जी ने जुर्माना भरा लेकिन कलम की रफ्तार और धार तेज हो गयी।

उस दौर में विद्यार्थी जी ने आम-आदमी की छोटी-छोटी समस्याओं, देशी रियासतों के अत्याचार अंग्रेजों के शोषण, दमन और लूट पर ढेरों जमीनी रिर्पोटिंग की। चंपारण के किसानों के शोषण पर रिपोर्टिंग कर एक पुस्तिका का प्रकाशन किया, जिसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया। 1921 रायबरेली में किसान हत्याकांड पर ‘डायरशाही, ओ डायरशाही’ के नाम से जमींदारो और अंग्रेजों की मिलीभगत में किसानों की हत्या का पर्दाफ़ाश किया तो उन्हें मानहानि केस में 3 महीना सजा काटनी पड़ी मगर वह रुके नहीं, थके नहीं, न ही अपने सिद्धान्तों और मूल्यों से समझौता किया।

प्रताप ने विज्ञापन को लेकर जो नीति बनायी थी वो पत्रकारिता का आदर्श हो गयी. उन्होंने उन विज्ञापनों को प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, जिनसे समाज में कुरीति का, बुराइयों का, अनैतिकिता का प्रचार होता है. जिसके चलते उन्हें घाटा भी उठाना पड़ा मगर वह अडिग रहे। वह किसी राजा, किसी उद्योगपति और अंग्रेजों से विज्ञापन नहीं लेते थे। वह जनता का अखबार था, जनता के पैसों से चलता था। जनता की आवाज को उठाता था।

गणेश शंकर विद्यार्थी: वो पत्रकार जो दंगे रोकने निकल पड़ा और मार डाला गया .....
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आज के समय में विद्यार्थी जी को याद करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, जब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है, तब हमें विद्यार्थी जी याद आते हैं जो भगत सिंह की फांसी के तीसरे दिन ही कानपुर में दंगों को रोकने के प्रयास में 25 मार्च 1931 को शहीद हो गए।

23 मार्च 1931 को क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने के बाद पूरे देश में सनसनी फैल गई। कानपुर भी इससे बचा हुआ नहीं था। घटना के ठीक तीसरे दिन यानी 25 मार्च को शहर में हिदू-मुस्लिम समुदाय के बीच मनमुटाव ने एक बड़े दंगे का रूप ले लिया। दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू थे। ऐसे माहौल में भी गणेश शंकर विद्यार्थी लोगों के उन्माद को शांत करने के लिए घर से निकल पड़े। उन्होंने कई लोगों की जान बचाई। जब कानपुर में दंगे भड़के तो केवल अखबार में लिखकर वह कैसे संतुष्ट हो जाते। दंगों को रोकना उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझी। कई जगह पर वो दंगों को रोकने में कामयाब भी रहे और बहुत से लोगों की जान भी बचाई।पर कुछ देर में ही वो दंगाइयों की एक ऐसी टुकड़ी में फंस गए जो दंगाई उन्हें पहचानते नहीं थे। फिर विद्यार्थी जी कभी लौटकर वापस ना आये, उन उन्मादी दंगाइयों के हाथों वे मार दिए गए।

आजादी की शुरुआती लड़ाई में हिंदू और मुसलमान दोनों ही साथ थे। पर अंग्रेजों ने भावनाओं से खेलना शुरू किया. धार्मिक भावनाएं भड़काईं और वो सब होने लगा जो नहीं होना चाहिए था। बंगाल विभाजन के रूप में इसका पहला धमाका देखने को मिला और ये 1920 आते-आते बहुत बढ़ गया था। दंगे होने लगे थे। देश भर में सांप्रदायिक हिंसा फैलने लगी। इस हंगामें से एक पत्रकार बेहद परेशान था, जो ये सब बर्दाश्त नहीं कर पाया और ये पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी थे।

अपने पत्रकारीय मूल्यों और जीवन सिद्धान्तों के प्रति यह उनकी प्रतिबद्धता थी कि उन्होंने उन आदर्शों के लिए अपनी जान की भी बाजी लगा दी।

शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

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