राणा बेनी माधव बख्श सिंह

राणा बेनी माधव बख्श सिंह
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'अवध में राणा भयो मरदाना'

तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी......

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे नायक हुए हैं जिनकी कहानियां किसी इतिहास की किताबों से इतर लोक की कथाओं में आज भी जीवंत हैं। लोक के मन मस्तिष्क में अमर होने वाले ऐसे ही एक नायक हैं रायबरेली के शंकरपुर रियासत के राजा राणा बेनी माधव सिंह। जिनकी कहानियां आज भी घर-घर में सुनाई जाती हैं।

राणा बेनीमाधव की काट नहीं खोज पाए अंग्रेज
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1856 में अवध के नबाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों द्वारा पद से हटाने का सबसे मुखर विरोध राणा बेनी माधव ने ही किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बनाया गया रायबरेली का सलोन जिला मुख्यालय पर हुआ विद्रोह राणा की ही संगठन क्षमता की देन थी। राणा के नेतृत्व और संगठन को लेकर ऐसी दूर दृष्टि थी कि 1857 की क्रांति के पहले ही पूरे रायबरेली ज़िले में जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गया था। कंपनी के मेजर गाल की हत्या और न्यायालय पर हमला करके आग लगा देना यह सब राणा की गुरिल्ला रणनीति का एक उदाहरण था।

10 मई 1857 के विद्रोह के बाद जब पूरे अवध में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ़ क्रन्ति शुरू हुई तो इसके प्रमुख नायक के रूप में राणा बेनी माधव ही थे। जुलाई 1857 में बेगम हजरत महल ने 12 वर्षीय बेटे बिरजिस कद्र को अवध की ताजपोशी कर दी थी। राणा के नेतृत्व में पूरे 18 महीने तक अवध कंपनी के चंगुल से आज़ाद हो चुका था। 17 अगस्त 1857 को राणा बेनी माधव को जौनपुर व आजमगढ़ का प्रशासक नियुक्त किया गया। इस बीच अवध के जिलों में अंग्रेजों को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। जगह-जगह राणा बेनी माधव के नेतृत्व में जमींदारों, तालुकेदारों व स्थानीय लोग ब्रिटिश सेना का विरोध कर रहे थे। राणा की यह गुरिल्ला तकनीक काम आ रही थी और अंग्रेज अधिकारी अवध को दुबारा हासिल करने में नाकाम हो रहे थे।

इतिहासकारों के अनुसार लखनऊ में क्रांति का सूत्रपात 30 मई 1857 को हुआ। उस समय राणा अपने 15 हज़ार सैनिकों के साथ वहां मौजूद थे।बेलीगारद, रेजीडेंसी व आलमबाग के युद्ध मे। उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। रायबरेली से भी बड़ी मात्रा में अवध की बेगम को सहायता भेजी गई। लखनऊ जिसमें सलोन के नाजिम द्वारा 2000 लोगों की टुकड़ी, राणा के भाई जोगराज सिंह द्वारा 700 लोग, बंदूकें, सेमरपहा व खूरगांव से 1300 लोग व बंदूके थी। उधर रायबरेली के दक्षिणी भाग में राणा के आदेश पर नायन के भगवान बख्श व जगन्नाथ बख्श विशाल सेना के साथ अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दे रहे थे। राणा की संगठन क्षमता ऐसी थी कि पूरे अवध को उन्होंने एक सूत्र में पिरो दिया। 18 नवम्बर 1858 को कोलिन कैम्पबेल राणा को पकड़ने शंकरपुर पहुंचा लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो सका। अगले दिन कैम्पबेल ने खाली दुर्ग को तहस नहस करा दिया और आसपास के इलाकों को भी खाली करा लिया।

इस संबंध में मेजर बीर भंजन मांझी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि क्रांतिकारियों के अभूतपूर्व पराक्रम से लखनऊ पर बेगम का आधिपत्य हुआ जिसमें राणा बेनी माधव की प्रमुख भूमिका रही है। अवध की क्रांति में राणा का ख़ौफ़ का उल्लेख 25 अप्रैल 1858 को कानपुर के जज ने कैप्टन म्यूर को प्रेषित एक तार में विस्तार से लिखा है।

लखनऊ में 30 मई, 1857 की रात बगावत शुरू हुई तो वह अपने पंद्रह हजार सैनिकों के साथ बागियों की प्रथम पंक्ति में थे। उनकी कमान संभाल रही बेगम हजरतमहल ने बेलीगारद रेजिडेंसी और आलमबाग की लड़ाइयों में बेनीमाधव द्वारा प्रदर्शित अद्वितीय पराक्रम के बदले उन्हें ‘दिलेरजंग’ का खिताब, आजमगढ़ की सूबेदारी और ‘खिलअत‘ भेंट की थी। पांच जुलाई, 1857 को बेगम के अवयस्क बेटे बिरजिसकदर की नए नवाब के रूप में ताजपोशी और अंग्रेजों को खदेड़कर रेजिडेंसी तक सीमित कर देने के अभियानों में भी बेनीमाधव निर्णायक भूमिका में रहे। मार्च 1858 में अंग्रेजों ने लखनऊ फिर से हथिया लिया और बेगम उसे छोड़ भागने पर मजबूर हो गईं तो भी बेनीमाधव ने हार नहीं मानी। फिर सेना संगठित कर लखनऊ की ओर चले और लखनऊ व कानपुर के बीच ग्रैंड ट्रंक रोड पर अरसे तक अंग्रेजों के लिए ‘भारी खतरा’ बने रहे। 12 मई, 1858 को उन्होंने सेमरी के मैदान में अंग्रेज जनरल होपग्रांट को बुरी तरह पराजित किया, तो अंग्रेजों द्वारा 5 नवंबर, 1858 को महारानी विक्टोरिया की ओर से उनको संधि का प्रस्ताव भेजा गया, जो वास्तव में एक झांसा था। उसके पीछे कमांडर-इन-चीफ कैंपबेल के नेतृत्व में बेनीमाधव के किले को तीन ओर से घेर कर उस पर सामूहिक हमले की गुप्त योजना थी। लेकिन 11 नवंबर, 1858 को इस घेरेबंदी पर अमल के बाद भी बेनीमाधव के तेवर नहीं बदले। उन्होंने अंग्रेजों को लिखा, ‘यद्यपि अब किले की रक्षा कर पाना मेरे लिए असंभव है, किंतु मैं आत्मसमर्पण कभी नहीं करूंगा क्योंकि मेरा वजूद मेरा नहीं, मेरे बादशाह का है।’ 16 नवंबर, 1858 को सुबह-सुबह वे सुरक्षित निकल गए तो खीझे अंग्रेजों ने किले को नेस्तनाबूद कर डाला।

बेनीमाधव डौडियाखेडा (उन्नाव) की ओर बढे़ तो 17 दिसंबर, 1858 को भीरा गोविन्दपुर के पास ब्रिगेडियर इवले और आगे सेमरी में मेजर मिल की सेना से उनकी मुठभेडें हुईं जिनमें बुरी तरह घायल होने के कारण उन्हें अपना अभियान रोक देना पड़ा।

स्वास्थ्यलाभ के बाद वे अयोध्या में सरयू नदी के किनारे वासुदेवघाट के समीप झाऊ के जंगलों में अज्ञातवास कर रही बेगम हजरतमहल से मिले और फैजाबाद के खोजनीपुर ग्राम के पास भीषण युद्ध में अंग्रेज कर्नल हंट को मार गिराया। आगे चलकर बहराइच में राप्ती नदी के तट पर उनका अंग्रेजों से अंतिम युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज मेजर हॉर्न नदी की तीव्र धारा में गिरा तो संभल नहीं पाया और डूबकर मर गया।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के इस वीर नायक के आखिरी दिनों को लेकर मतभेद है, लेकिन माना जाता है कि दिसंबर 1858 को राणा नेपाल चले गए और वहीं अंग्रेजों के साथी नेपाल नरेश राणा जंग बहादुर के साथ हुई जंग में शहीद हो गए। इस घटना का उल्लेख अंग्रेज इतिहासकार रॉबर्ट मार्टिन ने हावर्ड रसेल के 21 जनवरी 1860 के एक पत्र के हवाले से किया है।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अमर नायक राणा बेनी माधव केवल रायबरेली ही नहीं पूरे अवध में वह आज भी अमर हैं। लोक जीवन में उनकी वीरता की कहानियां आज भी घर-घर सुनाई जाती हैं। इतिहास का यह वीर शायद विरला ही होगा जिसने किताबों के पन्नों से हटकर लोकमन में अपना स्थान बनाया है, तभी आज भी कहे जाते हैं ......

"अवध में राणा भयो मरदाना"

शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

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