17 जनवरी/बलिदान दिवस, रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य

*17 जनवरी/बलिदान दिवस, रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य*

गुरु रामसिंह कुका
~~~~~~~~~~

राम सिंह का जन्म बसंतपंचमी, 1816 को भैनी (पंजाब) में एक प्रतिष्ठित, छोटे किसान परिवार में हुआ था। प्रारम्भ में वे अपने परिवार के साथ खेती आदि के काम में ही हाथ बंटाते थे, लेकिन आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण वे प्रवचन आदि भी दिया करते थे। अपनी युवावस्था में ही राम सिंह सांदगी पंसद और नामधारी आंदोलन के संस्थापक 'बालक सिंह' के शिष्य बन गए। बालक सिंह से उन्होंने महान् सिक्ख गुरुओं तथा खालसा नायकों के बारे में जानकारी हासिल की। अपनी मृत्यु से पहले ही बालक सिंह ने राम सिंह को नामधारियों का नेतृत्व सौंप दिया।

20 वर्ष की अवस्था में राम सिंह सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुए। सिक्खों के मूलाधार रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत उनकी सेना और क्षेत्र बिखर गए। ब्रिटिश ताकत और सिक्खों की कमज़ोरी से चिंतित राम सिंह ने सिंक्खों में फिर से आत्म-सम्मान जगाने का निश्चय किया और उन्हें संगठित करने के लिए अनेक उपाय किए। उन्होंने नामधारियों में नए रिवाजों की शुरुआत की और उन्हें उन्मत मंत्रोच्चार के बाद चीख की ध्वनि उत्पन्न करने के कारण 'कूका' कहा जाने लगा। उनका संप्रदाय, अन्य सिक्ख संप्रादायों के मुकाबले अधिक शुद्धतावादी और कट्टर था। नामधारी हाथों से बुने सफ़ेद रंग के वस्त्र पहनते थे। वे लोग एक बहुत ही ख़ास तरीके से पगड़ी बाँधते थे। वे अपने पास डंडा और ऊन की जप माला रखते थे। विशेष अभिवादनों व गुप्त संकेतों का इस्तेमाल वे किया करते थे। उनके गुरुद्धारे भी अत्यंत सादगीपूर्ण होते थे।

पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह का अचानक देहांत हो गया | उनके मरते ही अंग्रेजो ने उस स्तिथि का लाभ उठाया | एक साल में पुरे पंजाब की धरती सिक्खों के रक्त से रक्त-रंजित हो गयी | उस समय सिक्खों ने जिस वीरता का प्रदर्शन किया वह अविस्मरनीय है किन्तु नेताओं के विश्वासघात के कारण पंजाब 1757 में अंग्रेजो के अधीन हो गया | सारा भारत फिरंगियों के विरुद्ध संघठित हो रहा था परन्तु पंजाब की ओर किसी ने ध्यान नही दिया | पंजाब के लोग महाराजा और उनके बाद महाराजा दलीपसिंह के साथ किये गये दुर्व्यवहार से बहुत दुखी थे |

कोई कल्पना भी नही कर सकता था कि पंजाब 10 वर्ष बाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में विभीषण बन जाएगा | पंजाब के क्रान्तिकारियो को उन्ही के संबधियो ने मारा था परन्तु 1915 में इस दाग को पंजाब के युवको के धोया | कई युवको ने अपनी कुर्बानी दी और जेलों में असहनीय वेदना सहते हुए हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गये | सबसे पहले क्रांतिकारी दल का नाम “कुका” था | उस दल के नेता रामसिंह कुका थे।

रामसिंह, महाराजा रणजीतसिंह की सेना में एक सैनिक थे | वह अपना अधिकतर समय पूजा-पाठ में व्यतीत करते थे और अपने सैनिक कर्तव्यो को नही निभा रहे थे  अत: वह सेना की नौकरी छोडकर गाँव में भजन-भक्ति करने लगे | वह कुछ दिनों में प्रसिद्ध हो गये और उनके पास दूर दूर से लोग आने लगे | उसने सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया | वह अपने धार्मिक उद्देश्यों के सह साथ राजनितिक स्वतन्त्रता की बाते भी कहने लगा |

रामसिंह (Ram Singh Kuka) ने कहा था कि यह समय कोई मौज-मस्ती या धार्मिक बातो का नही बल्कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए विप्लव करने का है | उन्होंने “नामधारी” नाम का नया पन्थ शुरू किया | इसका उद्देश्य सब तरह के आडम्बर छोडकर केवल भगवान का नाम लेना चाहिए | गुरु रामसिंह ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया | उन्होंने अपने अनुयायियों को अंग्रेजी शिक्षा , न्यायालय , रेलवे आदि का बहिष्कार करने का आह्वान किया | उन्होंने अपनी डाक व्यवस्था का प्रबंध किया |

सरकार उनकी गतिविधियों से बौखला उठी और गुरु रामसिंह (Ram Singh Kuka) पर तथा उनके कार्यो पर प्रतिबन्ध लगा दिया परन्तु गुरु रामिसंह ने निर्भय होकर अपना गुप्त विप्लवी कार्य जारी रखा | उन्होंने पुरे प्रांत को 22 भागो में विभक्त करके 22 गर्वनर नियुक्त किये जो संघठन में एकता स्थापित करेंगे और धन संग्रह करेंगे | यह सुरक्षा बल था जो युवको को अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण भी देता था | कुछ ही समय में वह धार्मिक-राजनितिक संघठन बहुत शक्तिशाली बन गया | बाहरी रूप से उनके सादे जीवन को देखकर सरकार को उन पर संदेह नही हुआ |

1869 में उन पर लगाये गये प्रतिबन्ध हटा दिए गये | प्रतिबंधो के हटने से क्रान्तिकारियो में नया उत्साह सम्पन्न हुआ | सब लोग उत्साहित थे | गौ-रक्षा उनका उद्देश्य और आदर्श था | सन 1871 ने कुछ कुका अमृतसर की ओर जा रहे थे | मार्ग में गाये ले जाते हुए कुछ कसाइयो से टक्कर हो गयी सब कसाई मारे गये | अमृतसर के सब मुख्य हिन्दू पकड़ लिए गये | यह समाचार गुरु रामसिंह (Ram Singh Kuka) के पास पहुचा | उन्होंने तुरंत अपराधियों को न्यायालय में जाकर आत्मसमपर्ण करने का आदेश दिया जिसका पालन हुआ | इससे लोगो पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा | सरकार गुरु का लोगो पर प्रभाव सहन नही कर पायी |

13 जनवरी 1872 को भैनी में माही मेला था जहा हजारो कुका जा रहे थे | रस्ते में मालेर कोटला मुस्लिम रियासत में एक कुक का विवाद हो गया और उसको बुरी तरह पीटा गया और उसके सामने ही एक गाय का वध किया गया | उसने यह दुःख भरी कथा कुका अधिवेशन में जाकर सुनाई | यह सुनकर लोग क्रोधित हो गये | उन्होंने गुरु से कहा कि उसी दिन से क्रांतिकारी गतिविधिया आरम्भ की जाए परन्तु बिना तैयारी के गुरु ने यह कदम उठाने को मना कर दिया | उसने अपनी पगड़ी रखकर लोगो को ऐसा न करने के लिए मना किया |

अधिकतर लोग उनकी बात मान गये थे परन्तु 154 व्यक्तियों ने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया | गुरु ने सोचा कि यह अच्छा अवसर है कि जब वह गुप्त रूप से अपनी गतिविधिया चलाते रह सकेंगे | अत: उन्होंने पुलिस को सूचित किया कि उन लोगो के कामो का उत्तरदायित्व उनका नही होगा | बाद में उन विद्रोहियों ने मालान्ध के किले पर आक्रमण करके एक तोप ,कुछ तलवारे एवं घोड़े अपने कब्जे में ले लिए | किले के सामन्तो ने उनकी पुरी सहायता करने का आश्वासन दिया परन्तु बाद में उन्होंने इनको अपरिपक्व समझकर सहायता देने से मना कर दिया |

15 जनवरी 1872 को इन विद्रोहियों ने मलार कोटला पर आक्रमण कर दिया और राजमहल तक जा पहुचे | वहा उनका सैनिको से घमासान युद्ध हुआ और विप्लवी लोगो को पीछे हटना पड़ा | सरकार की सेना ने उनका पीछा किया और 68 विद्रोही पकड़े गये |

*17 जनवरी/बलिदान दिवस, रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य*

17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मालेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी। एक-एक कर 50 गोभक्त सिख वीर वहाँ लाये गये। उनके हाथ पीछे बँधे थे। इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था। ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका के शिष्य थे।

अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुह पर काला कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया, पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बँधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे। तब मैदान में एक बड़ी तोप लायी गयी। अनेक समूहों में इन वीरों को तोप के सामने खड़ा कर गोला दाग दिया जाता। गोले के दगते ही गरम मानव खून के छींटे और मांस के लोथड़े हवा में उड़ते। जनता में अंग्रेज शासन की दहशत बैठ रही थी। कोवन का उद्देश्य पूरा हो रहा था। उसकी पत्नी भी इस दृश्य का आनन्द उठा रही थी।

इस प्रकार 49 वीरों ने मृत्यु का वरण किया, पर 50 वें को देखकर जनता चीख पड़ी। वह तो केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशनसिंह था। अभी तो उसके चेहरे पर मूँछें भी नहीं आयी थीं। उसे देखकर कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया। उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा। कोवन ने बिशनसिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि यदि तुम उस धूर्त का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।

यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा। उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा। कोवन ने बहुत प्रयत्न किया, पर वह उस तेजस्वी बालक की पकड़ से अपनी दाढ़ी नहीं छुड़ा सका। इसके बाद बालक ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा। यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। इसके बाद उसे वहीं गोली मार दी गयी। इस प्रकार 50 कूका वीर उस दिन बलिपथ पर चल दिये। शेष को अगले दिन मृत्युदण्ड दिया गया।

18 जनवरी 1872 को बाकी विद्रोहियों को फाँसी दी गयी। तोपों के मुंह पर बांधे जाने या फांसी पर चढ़ते समय उनके मुख पर प्रसन्नता थी। इन विद्रोहियों ने अपनी मातृभूमि और आदर्शो पर बलिदान होकर पंजाब का गौरव बढाया। अंग्रेज जानते थे कि इन सबके पीछे गुरु रामसिंह कूका की ही प्रेरणा है। अतः उन्हें भी गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में भेज दिया। 14 साल तक वहाँ काल कोठरी में कठोर अत्याचार सहकर 1885 में सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया।मातृभूमि पर बलिदान होने वाले इन सभी वीरो के त्याग और बलिदान को भुलाया नही जा सकता |

शत-शत नमन करूँ मैं आप सभी को 💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP



Popular posts from this blog

वक्त आने पर बता देंगे तुझे ऐं आसमां

वीरांगना झलकारी बाई

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी