वीरांगना रानी दुर्गावती

वीरांगना रानी दुर्गावती
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5 अक्टूबर: जन्म जयंती वीरांगना रानी दुर्गावती, जिन्होंने उस अत्याचारी अकबर को तीन बार युद्ध में हराया, जिसे बताया जाता है महान .....

आज के ही दिन अवतरित हुई थी भारतीय नारियो की वो महाशक्ति जिसने अकबर जैसे क्रूर और दुराचारी के आगे एक नारी हो कर भी उस समय हार नहीं स्वीकार की जब अकबर भारत का इस्लामीकरण करता जा रहा था। ये वो समय था जब अकबर के खौफ से भयाक्रांत होकर अनेक कायर रजवाड़ों ने उसकी दासता स्वीकार कर ली थी। उस अत्याचारी मुग़ल आक्रान्ता अकबर से लड़कर हिंदुत्व के गौरव को जीवित रखने वाली और नारी शक्ति की एक नई गाथा लिखने वाली रानी दुर्गावती जी का आज जन्मदिवस है।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर सन 1524 को महोबा में हुआ था. दुर्गावती के पिता महोबा के राजा थे. रानी दुर्गावती सुन्दर, सुशील, विनम्र, योग्य एवं साहसी लड़की थी। बचपन में ही उसे वीरतापूर्ण एवं साहस भरी कहानियां सुनना व पढ़ना अच्छा लगता था. पढाई के साथ – साथ दुर्गावती ने घोड़े पर चढ़ना, तीर तलवार चलाना, अच्छी तरह सीख लिया था। शिकार खेलना उसका शौक था। वे अपने पिता के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। पिता के साथ वे शासन का कार्य भी देखती थी। विवाह योग्य अवस्था प्राप्त करने पर उनके पिता मालवा नरेश ने राजपूताने के राजकुमारों में से योग्य वर की तलाश की। परन्तु दुर्गावती गोडवाना के राजा दलपतिशाह की वीरता पर मुग्ध थी।

दुर्गावती के पिता अपनी पुत्री का विवाह दलपति शाह से नहीं करना चाहते थे। अंत में दलपति शाह और महोबा के राजा का युद्ध हुआ। जिसमे दलपति शाह विजयी हुए और इस प्रकार दुर्गावती और दलपति शाह का विवाह हुआ। रानी दुर्गावती अपने पति के साथ गढ़मंडल में सुखपूर्वक रहने लगी। इसी बीच रानी  दुर्गावती के पिता की मृत्यु हो गई और महोबा तथा कालिंजर पर मुग़ल सम्राट अकबर का अधिकार हो गया। विवाह के एक वर्ष पश्चात् दुर्गावती का एक पुत्र हुआ। जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। जिस समय वीरनारायण केवल तीन वर्ष का था उसके पिता दलपति शाह की मृत्यु हो गई। दुर्गावती के ऊपर तो मानो दुखो का पहाड़ ही टूट पड़ा। परन्तु उसने बड़े धैर्य और साहस के साथ इस दुःख को सहन किया।
दलपति शाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र वीर नारायण गद्दी पर बैठा। रानी दुर्गावती उसकी संरक्षिका बनी और राज – काज स्वयं देखने लगी। वे सदैव प्रजा के दुःख – सुख का ध्यान रखती थी। चतुर और बुद्धिमान मंत्री आधार सिंह की सलाह और सहायता से रानी दुर्गावती ने अपने राज्य की सीमा बढ़ा ली। राज्य के साथ – साथ उसने सुसज्जित स्थायी सेना भी बनाई और अपनी वीरता, उदारता, चतुराई से राजनैतिक एकता स्थापित की। गोंडवाना राज्य शक्तिशाली और संपन्न राज्यों में गिना जाने लगा। इससे रानी दुर्गावती की ख्याति फ़ैल गई और विरोधी खेमे में भय की लहार भी। रानी दुर्गावती की योग्यता एवं वीरता की प्रशंसा अकबर ने सुनी। उसके दरबारियों ने उसे गोंडवाना को अपने अधीन कर लेने की सलाह दी।

अकबर ऐसा सुन कर तत्काल  तैयार हो गया। उसने अपने आसफ खां नामक हत्यारे सरदार को गोंडवाना की गढ़मंडल पर चढ़ाई करने की सलाह दी। आसफ खां ने समझा कि दुर्गावती महिला है, अकबर से भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर देगी। परन्तु रानी दुर्गावती को अपनी योग्यता, साधन और सैन्य शक्ति पर इतना विश्वास था कि उसे अकबर की सेना के प्रति भी कोई भय नहीं था। रानी दुर्गावती के मंत्री ने आसफ खान की सेना और सज्जा को देखकर युद्ध न करने की सलाह दी। परन्तु रानी ने कहा, ” कलंकित जीवन जीने की अपेक्षा शान से मर जाना अच्छा है।

आसफ खान जैसे साधारण सूबेदार के सामने झुकना लज्जा की बात है। रानी सैनिक के वेश में घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ी। रानी को सैनिक के वेश में देखकर आसफ खान के होश उड़ गये। रणक्षेत्र में रानी के सैनिक उत्साहित होकर शत्रुओ को काटने लगे। रानी भी शत्रुओ पर टूट पड़ी। देखते ही देखते दुश्मनो की सेना मैदान छोड़कर भाग निकली। आसफ खान बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाने में सफल हुआ। यद्द्पि आसफ खान का जीवन भी एक हिन्दू नारी के दया स्वरूप दिए गए अभयदान का ही परिणाम था ठीक वैसे ही जैसे कभी पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को दिया था।

आसफ खान की बुरी तरह हार सुनकर अकबर बहुत लज्जित हुआ। डेढ़ वर्ष बाद उसने पुनः आसफ खान को गढ़मंडल पर आक्रमण करने भेजा। रानी तथा आसफ खान के बीच घमासान युद्ध हुआ। तोपों का वार होने पर भी रानी ने हिम्मत नहीं हारी। रानी हाथी पर सवार सेना का संचालन कर रही थी। उन्होंने मुग़ल तोपचियों का सिर काट डाला. यह देखकर आसफ खान की सेना फिर भाग खड़ी हुई। दो बार हारकर आसफ खान लज्जा और ग्लानी से भर गया। रानी दुर्गावती अपने राजधानी में विजयोत्स्व मना रही थी. उसी गढ़मंडल के एक सरदार ने रानी को धोखा दे दिया। उसने गढ़मंडल का सारा भेद आसफ खान को बता दिया।

आसफ खान ने अपने हार का बदला लेने के लिए तीसरी बार गढ़मंडल पर आक्रमण किया। रानी ने अपने पुत्र के नेतृत्व में सेना भेजकर स्वयं एक टुकड़ी का नेतृत्व संभाला। दुश्मनों के छक्के छूटने लगे। उसी बीच रानी ने देखा कि उसका 15 का वर्ष का पुत्र घायल होकर घोड़े से गिर गया है. रानी विचलित न हुई। उसी सेना के कई वीर पुरुषो ने वीर नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और रानी से प्रार्थना की कि वे अपने पुत्र का अंतिम दर्शन कर ले। रानी ने उत्तर दिया- यह समय पुत्र से मिलने का नहीं है. मुझे ख़ुशी है कि मेरे वीर पुत्र ने युद्ध भूमि में वीर गति पाई है। अतः मैं उससे अब देवलोक में ही मिलूंगी।

वीर पुत्र की स्थिति देखकर रानी दो गुने उत्साह से तलवार चलाने लगी। दुश्मनों के सिर कट – कट कर जमीन पर गिरने लगे। तभी दुश्मनों का एक बाण रानी की आँख में जा लगा और दुसरा तीर रानी की गर्दन में लगा। रानी समझ गई की अब मृत्यु निश्चित है। यह सोचकर कि जीते जी दुश्मनों की पकड़ में न आऊँ उन्होंने अपनी ही तलवार अपनी छाती में भोंक ली और अपने प्राणों की बलि दे दी। इनका बलिदान 24 जून सन 1564 को हुआ।

रानी दुर्गावती ने लगभग 16 वर्षो तक संरक्षिका के रूप में शासन किया रानी दुर्गावती में अनेक गुण थे। वीर और साहसी होने के साथ ही वे त्याग और ममता की मूर्ति थी। राजघराने में रहते हुए भी उन्होंने बहुत सादा जीवन व्यतीत किया। राज्य के कार्य देखने के बाद वे अपना समय पूजा – पाठ और धार्मिक कार्यो में व्यतीत करती थी। भारतीय नारी की वीरता तथा बलिदान की यह घटना अमर रहेगी। आज रानी दुर्गावती जी के  जन्मदिवस पर उस महान नारीशक्ति को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखना हम भारतवासियों का कर्तव्य है।

शत-शत नमन करूँ मैं आपको .......
..... विजेता मलिक

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