महाराणा सांगा

महाराणा सांगा
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मेवाड़ के गौरव के अंतर्गत महाराणाओं में सबसे अधिक महान प्रतापी और प्रसिद्ध योद्धा महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) थे।

महाराणा संग्रामसिंह वि.स्. 1566 ज्येष्ठ सुदी 5 (ई.स्. 1509 तारीख 24 मई) को मेवाड़ की गद्दी पर बिराजे। वे मेवाड़ के महाराणाओं में सबसे अधिक प्रतापी और प्रसिद्ध योद्धा हुए। वे लोगो में राणा सांगा नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। राणा सांगा उस समय के सबसे प्रबल हिन्दू राजा थे। तथा उनकी सेवा में अनेक हिन्दू राजा रहते थे और कई हिन्दू राजा, सरदार तथा मुसलमान अमीर शहजादे आदि उनकी शरण लेते थे।

भाटों की ख्यातों के अनुसार महाराणा सांगा ने 28 विवाह किये थे जिनसे उनके 7 पुत्र :- 1. भोजराज, 2 कर्णसिंह, 3 रतनसिंह, 4 विक्रमादित्य, 5 उदयसिंह, 6 पर्वतसिंह और 7 कृष्णसिंह तथा चार पुत्रियाँ हुई। कुँवरो मेसे भोजराज, कर्णसिंह, पर्वतसिंह, और कृष्णसिंह तो महाराणा के जीवनकाल में ही मर गये थे।

मेवाड़ राज्य को उन्नति के शिखर पर पंहुचाने वाले महाराणा सांगा की सेना में एक लाख योद्धा और पांच सौ हाथी थे सात बड़े बड़े राजा, नों राव, और 107 रावत उनके अधीन थे। जोधपुर और आमेर के राजा इनका सम्मान करते थे। ग्वालियर, अजमेर, सिकरी, रायसेन(अब भोपाल में), कालपी, चन्देरी, बूंदी, गागरोन, रामपुरा और आबू के राजा उनके सामन्त थे। अपने समय के ये सबसे ये सबसे बड़े हिन्दू नरेश थे, जिनके आगे बड़े-बड़े राजा महाराजा सिर झुकाते थे और जिनसे लोहा लेने से दुश्मन काँपा करते थे। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता।

महाराणा सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात, और मालवा के मुसलमान सुल्तानों के राज्यो से घिरा हुआ था। दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी सुल्तान थे। तीनो सुल्तानों की सम्मिलित शक्ति से एक स्थान पर महाराणा ने युद्ध किया फिर भी जीत महाराणा की हुई। सुल्तान इब्राहिम लोदी से बूँदी की सीमा पर खातोली के मैदान में वि.स. 1574 (ई.स. 1517) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी पराजित हुआ और भाग गया। महाराणा की एक आँख तो युवाकाल में भाइयो की आपसी लड़ाई में जाती रही थी और इस युद्ध में उनका बायां हाथ तलवार से कट गया तथा एक पाँव के घुटने में तीर लगने से सदा के लिये लँगड़े हो गये थे।

महाराणा ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को लड़ाई में ईडर, अहमदनगर एवं बिसलनगर में परास्त कर अपने अपमान का बदला लिया अपने पक्ष के सामन्त रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर पुनः बिठाया। अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क जी ईडर से भागकर अहमदनगर के किले में जाकर रहने लगा और सुल्तान के आने की प्रतीक्षा करने लगा । महाराणा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमद नगर को जा घेरा। मुसलमानों ने किले के दरवाजे बंद कर लड़ाई सुरु कर दी। इस युद्ध में महाराणा का एक नामी सरदार डूंगरसिंह चौहान(वागड़) बुरी तरह घायल हुआ और उसके कई भाई बेटे मारे गये। डूंगरसिंह के पुत्र कान्हसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई। किले के लोहे के किवाड़ पर लगे तीक्ष्ण भालो के कारण जब हाथी किवाड़ तोड़ने के लिए मुहरा न कर सका, तब वीर कान्हसिंह ने भालों के आगे खड़े होकर महावत को कहा कि हाथी को मेरे बदन पर झोंक दे। कान्हसिंह पर हाथी ने मुहरा किया। जिससे उसका शरीर भलो से छिन छिन हो गया और वह उसी क्षण मर गये, परन्तु किवाड़ भी टूट गए। इससे राजपूत सेना में जोश बढा और वे नंगी तलवारे लेकर किले में घुस गये और मुसलमान सेना को काट डाला। निजामुल्मुल्क जिसको मुबारिजुल्मुल्क का ख़िताब मिला था वह भी बहुत घायल हुआ और सुल्तान की सारी सेना तीतर-बितर होकर अहमदाबाद को भाग गयी।

माण्डू के सुलतान महमूद के साथ वि.स्. 1576 में युद्ध हुआ जिसमें 50 हजार सेना के साथ महाराणा गागरोन के राजा की सहायता के लिए पहुँचे थे। इस युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह घायल हुआ। उसे उठाकर महाराणा ने अपने तम्बू पहुँचवा कर उसके घावो का इलाज करवाया। फिर उसे तीन महीने तक चितौड़ में कैद रखा और बाद में फ़ौज खर्च लेकर एक हजार राजपूत के साथ माण्डू पहुँचा दिया। सुल्तान ने भी अधीनता के चिन्ह स्वरूप महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेंट स्वरूप दिए, जो सुल्तान हुशंग के समय से राज्यचिन्ह के रूप में वहाँ के सुल्तानों के काम आया करते थे। 

बाबर बादशाह से सामना करने से पहले भी राणा सांगा ने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाईयाँ दिल्ली व् मालवा के सुल्तानों के साथ लड़ी। एक बार वि.स्. 1576 में मालवे के सुल्तान महमूद द्वितीय को महाराणा सांगा ने युद्ध में पकड़ लिया, परन्तु बाद में बिना कुछ लिये उसे छोड़ दिया।

महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ते के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी। बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पालन हुआ। मीराबाई का विवाह वि.स्. 1573(ई.स्. 1516) में महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज के साथ होने के कुछ वर्षों बाद कुँवर युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई बचपन से ही भगवान की भक्ति में रूचि रखती थी। उनका पिता रत्नसिंह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में मारा गया। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद छोटा पुत्र रतनसिंह उत्तराधिकारी बना और उसकी भी वि.स्. 1588(ई.स्. 1531) में मरने के बाद विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।

मीराबाई की अपूर्व भक्ति और भजनों की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी जिससे दूर दूर से साधु संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण महाराणा विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहा करते और तरह तरह की तक्लीफे दिया करता था। यहाँ तक की उसने मीराबाई को मरवाने के लिए विष तक देने आदि प्रयोग भी किये, परन्तु वे निष्फल ही हुए। ऐसी स्थिति देख राव विरामदेव ने मीराबाई को मेड़ते बुला लिया। जब जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब मीराबाई तीर्थयात्रा पर चली गई और द्वारकापुरी में जाकर रहने लगी। जहा वि.स्. 1603(ई.स्. 1546) में उसका देहांत हुआ।

खानवा का युद्ध
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महाराणा सांगा का अंतिम युद्ध बाबर के साथ बयान(भरतपुर राज्य में) में हुआ। वि.स्. 1583 (20 अप्रेल 1526) को बाबर ने पानीपत की प्रसिद्ध लड़ाई में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकार किया। अब उसे भारत का सम्राट बनने के लिए राणा सांगा से युद्ध करना जरूरी था। इधर राणा सांगा भी बाबर को हरा भारत का सम्राट बनना चाहते थे। बाबर अपनी सेना एकत्र कर सिकरी की और बढ़ा। इसी समय बाबर की एक सेना बयाना के पास हुए युद्ध में राणा सांगा से पराजित होकर लोटी तो सेना में निराशा छा गयी। बाबर ने अपने सभी सरदारों को इखट्ठा करके सब सेना के सामने शराब न पिने का प्रण किया। सोने चांदी के शराब के प्यालो को तोड़कर गरीबो में बाँट दिया तथा एक जोशीला भाषण दिया और सभी सरदारों से एक द्रढ प्रतिज्ञा करवाई की दम रहते रणक्षेत्र को छोड़कर कभी पीछे नहीं देखेंगे। इससे सेना में फिर जोश उत्पन्न हुआ। इसके बाद बाबर ने खुद आगे बढ़कर खानवा के मैदान में अपनी सेना को जमाया। राणा सांगा की सेना देर से पहुँची। अतः जल्दी में ना तो सेना का अच्छी तरह जमाव हो सका और ना ही लड़ने का अच्छा सुरक्षित स्थान प्राप्त हो सका। ऐसी स्थिति में चैत्र सुदी 14-वि.स् 1584 (17 मार्च 1527) को प्रातः दोनों सेनाओं के बीच युद्ध शुरु हुआ।

राणा सांगा के साथ महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का पुत्र) की सेना, राव गांगा जोधपुर, पृथ्वीराज आमेर, भारमल ईडर, वीरमदेव मेड़तिया, रावल उदयसिंह डूंगरपुर, नरबद हाडा बूंदी, मेदिनीराय चन्देरी, रावत बाघसिंह देवलिया, कुँवर कल्याणमल (बीकानेर के राव जैतसी का पुत्र) आदि शासको की सेना थी। इसके अलावा रावत रत्नसिंह कांगलोट, रावत जोंगा सारंगदेवोत, सोनगरा रामदास, झाला अज्ज़ा, रायमल राठौर (जोधपुर की सेना का मुखिया) वीर सिंह देव, खेतसी, दिलीप, परमार गोकुलदास, नरसिंह देव, चंद्रभान चौहान और मानिकचंद चौहान ससैन्य महाराणा के साथ थे। महाराणा स्वयं हाथी पर सवार होकर सेना का संचालन कर रहे थे। महाराणा की सेना बहुत उत्साह के साथ बाबर की सेना पर टूट पड़ी, परन्तु बाबर के पास व्यवस्थित तोपखाना था। उसकी मार के सामने राजपूतो की सेना तीर और तलवारो से मुकाबला करती रही और मुग़ल सेना को काटती हुई तोपो तक जा पहुँची। इसी प्रकार प्रारम्भ में तो राजपूत सेना को सफलता मिली, परन्तु इसी दौरान एक तीर महाराणा के सिर में लगा और महाराणा मूर्छित हो गए। कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध मैदान से दूर ले गए। इससे बाबर की सेना में जोश और राजपूत सेना में कुछ निराशा छा गयी। झाला अज्ज़ा ने महाराणा के सब राज्यचिन्ह धारण कर युद्ध संचालन में अपने प्राण दिए। परन्तु इस युद्ध में राजपूतो की हार और बाबर की जीत हुई। कुछ समय पश्चात वि.स्. 1584 (30 जनवरी 1528) को कालपी नामक स्थान पर 46 वर्ष की आयु में महाराणा का स्वर्गवास हो गया। महाराणा की मृत्यु के समय उनके शरीर पर कम से कम 80 घाव तीर और भालों के लगे हुए थे।

शत शत नमन करूँ मैं ऐसे महावीर महाराणा सांगा जी को ........
........ विजेता मलिक

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