कर्त्तव्यनिष्ठा से उत्कृष्ट जीवन जीने की प्रेरणा देती है गीता – डॉ. मोहन भागवत जी

कर्त्तव्यनिष्ठा से उत्कृष्ट जीवन जीने की प्रेरणा देती है गीता – डॉ. मोहन भागवत जी
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डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा, गीता का अनुसरण करते हुए समाज में लानी होगी एकता एवं आत्मीयता की भावना :

कुरुक्षेत्र (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि देश आज जिस परिस्थिति से गुजर रहा है, उसमें गीता का अनुसरण आवश्यक है. समाज में एकता एवं आत्मीयता की भावना लानी होगी. समाज को गीता का संदेश प्रत्यक्ष रूप से जीवन में उतारना होगा. गीता कर्त्तव्य निष्ठा से लेकर उत्कृष्ट जीवन जीने की प्रेरणा देती है. बिना परिणाम की चिंता किए कर्म करना ही गीता का सिद्धांत है. जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसे ही परिणाम मिलेंगे. जो करेगा वह भोगेगा. फल में मोह न रखते हुए कर्म को उत्कृष्ट बना कर समबुद्धि रखते हुए जीवन जीना चाहिए. सरसंघचालक जी शनिवार को कुरुक्षेत्र में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के शुभारंभ अवसर पर संबोधित कर रहे थे. इस अवसर पर हरियाणा के राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी जी, मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर जी तथा हिमाचल के राज्यपाल आचार्य देवव्रत जी भी उपस्थित थे.

सरसंघचालक जी ने कहा कि गीता भारत के विचार का तथा भारत के अनुभवों से पैदा हुई प्रगति का निष्कर्ष है. जिन निष्कर्षों पर हमारे पूर्वज पहुंचे हैं, उन सारे निष्कर्षों का सारांश गीता है. उपनिषद् एक तरह से हमारी गाय हैं और उनका दूध दोह कर गीता के माध्यम से हमारे पास पहुंचा है. गीता का पहला संदेश यह है कि हमें अपने कर्म से भागना नहीं चाहिए. यदि हमें जन्म मिला है तो कर्त्तव्य धर्म भी मिलेगा. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि-अरूचि, अपनी क्षमता-अक्षमता, परिस्थिति विपरित या अनुकूल यह सब जन्म के साथ ही आती है और उसको जी कर ही बिताना पड़ता है. इसलिए जितना संभव हो, उतना ही उत्कृष्ट जीने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए. कभी हार कर नहीं बैठना चाहिए, निराश होकर आत्महत्या नहीं करनी चाहिए चाहे कुछ भी परिस्थित हो. डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि क्रांतिकारियों को पता था कि फांसी पर चढ़ना है, लेकिन वह इस आनंद प्रवाह पर कि गीता के उपदेश के अनुसार फल की चिंता नहीं करते हुए विहित कर्त्तव्य, धर्मं को जानकार उत्कृष्ट रूप से कर्त्तव्य का पालन किया. इसलिए हमें भय करने की जरूरत नहीं है. मरना तो है ही. जीवन ऐसा ही होता है, कहीं पर शुरू होता है तथा कहीं पर समाप्त होता है. कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता संदेश देते हुए बताया कि धर्मयुद्ध की लड़ाई लड़नी होगी. भाग्य में जो लिखा है वही मिलेगा. इसलिए फल की चिंता मत करो, केवल कर्म करो. कर्त्तव्य को पहचान कर कर्म करना चाहिए. अपनों का मोह त्यागकर कर्म करना चाहिए. अगर तुम इससे भागोगे तो न तुमको परलोक में उत्तम गति मिलेगी और न ही इस लोक में कीर्ति मिलेगी. इसको करोगे और करते-करते मरोगे तो तुमको उत्तम गति मिलेगी. यदि जीत जाओगे तो यहां राज्य भोग मिलेगा. इसलिए हमें अपने कर्त्तव्य को पहचान कर भागना नहीं, बल्कि उस कर्त्तव्य को करने के लिए अपनी सारी शक्तियां दांव पर लगाकर जीवन का सामना करना चाहिए.

सरसंघचालक जी ने कहा कि कर्म अगर करना है तो मेरा ध्यान कर्म करते समय मेरे नाम पर नहीं रहना चाहिए. मेरा ध्यान कर्म करते समय मेरी किसी रूचि-अरूचि पर नहीं होना चाहिए. हो सकता है कि जो कर्म तुम कर रहे हो, उसे आज समाज में अच्छा नहीं देखा जा रहा हो. लेकिन अगर वह उचित है तो समाज के विरोध में भी जाकर उसे करना चाहिए. भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश केवल पढ़ने – लिखने के लिए नहीं, बल्कि आचरण में उतारने के लिए है. हमें अपने कर्त्तव्य को नहीं भूलना चाहिए. कर्म करते समय हमें कभी अहंकार नहीं करना चाहिए. हमें अपने कर्म का श्रेय या दोष किसी को नहीं देना चाहिए क्योंकि हम जो करते हैं, वह सब भगवान ही हमसे करवा रहा है. उन्होंने कहा कि कुछ चतुर लोग अपने अनुसार गीता के वचनों को ढाल कर अपनी कुरीतियों को छिपाने का प्रयास करते हैं, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए. मोह रहित, विकार रहित हो कर कर्म करना चाहिए. जन्म-मरण सब नियती की योजना है. धर्म के उपर कुछ नहीं होता. अपने वैभव रक्षण के लिए मत लड़ो, किसी को अपना मान कर मत लड़ो, जो धर्म के पक्ष में है उसके लिए लड़ो. काम, क्रोध, मोह, द्वेष, लोभ, भय इन सब विकारों को छोड़ दो. क्योंकि विकार मनुष्य के अंदर प्रवेश कर मनुष्य पर कब्जा कर लेते हैं. उन्होंने कहा कि व्यक्ति की पहचान जन्म से नहीं, बल्कि उसके गुणों से होनी चाहिए. आज समाज के सभी लोगों को मिलकर देश के लिए काम करने की जरूरत है. गीता महोत्सव को महज उत्सव नहीं मानना चाहिए. पांच हजार साल बाद यह हमारे लिए आया है, ऐसा नियती का आह्वान है. आज गीता को समझ कर उस पर चलने की आवश्यकता है.

जय हिन्द ।

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