वीर शहीद केसरी चन्द जी
वीर शहीद केसरी चन्द जी
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"जो देश अपने वीर और महान सपूतों को भूल जाता है, उस देश के आत्मसम्मान को हीनता की दीमक चट कर जाती है।" ....... याद रखना दोस्तों।
हमें समय समय पर इन महान हस्तियों को याद करते रहना चाहिए। अपने बच्चों, छोटे भाई-बहनों, आदि को इन वीर सपूतों की वीर गाथाओं को समय-समय पर सुनाना चाहिए। इन अमर बलिदानियों के किस्से-कहानियों को कॉपी-पेस्ट करके अपने-अपने सोशल नेटवर्क पर डालना चाहिए व एक दूसरे को शेयर करना चाहिए, ताकि और लोगो को भी इन अमर बलिदानियों व शहीदों के बारे में पता लग सके।
तुम भूल न जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी .......
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जौनसार के गौरव वीर केसरी चन्द की शहादत की याद में उनके शहादत दिवस (3 मई, 1945) पर विशेष...
जौनसार, उत्तराखंड के ऐतिहासिक थाती का महत्वपूर्ण क्षेत्र, विशिष्ट सांस्कृतिक वैभव की भूमि, जीवंत और उन्मुक्त जीवन शैली से परिपूर्ण समाज, यहां की लोक-कथाओं और लोक-गाथाओं में बसी है। यहां की सौंधी खुशबू, लोक-गीत, नृत्यों और मेले-ठेलों में देख सकते हैं। लोक का बिंब, यहीं चकरौता के पास है, रामताल गार्डन (चौलीथात)। यहां प्रतिवर्ष 3 मई को एक मेला लगता है- ‘वीर केसरी चन्द मेला’ अपने एक अमर सपूत को याद करने के लिये। जौनसारी लोकगीत-नृत्य ‘हारूल’ के माध्यम से इस अमर सेनानी की शहादत का जिक्र होता है, बहुत सम्मान के साथ, गरिमा के साथ.....
सूपा लाहती पीठी है
ताउंखे आई गोई केसरीचंदा
जापान की चीठी है
जापान की चीठी आई
आपूं बांच केसरी है....
जिस अमर शहीद के सम्मान में यह लोकगीत गाया जाता है, उनका नाम है- "अमर शहीद केसरी चंद"। जौनसार बावर का वह सपूत जिसने देश की आजादी के लिये बहुत छोटी उम्र में फांसी का फंदा चूम लिया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उत्तराखंड के लोगों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में जब ‘आजाद हिन्द फौज’ बनी तो उसने युवाओं को बहुत प्रभावित किया। बड़ी संख्या में उत्तराखंड के युवा नेताजी के आह्वान पर जंगे आजादी में कूद पड़े। पहाड़ के कई युवाओं को नेताजी ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी। इनमें अमर सपूत केसरी चंद का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
अमर शहीद वीर केसरी चन्द का इतिहास बनाने के इस सफर की कहानी जौनसार की जमीन से शुरू होती है। उनका जन्म 1 नवम्बर, 1920 को जौनसार बावर के क्यावा गांव में हुआ। उनके पिता का नाम पं शिवदत्त था। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा विकासनगर में पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिये वे देहरादून आ गये। यहां 1938 में डीएवी कालेज से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई भी यहीं जारी रखी, लेकिन उनमें राष्ट्रीय चेतना की भावना जन्म लेने लगी। उस समय देश में आजादी की लड़ाई में युवा बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। केसरी चंद पढ़ाई के साथ कांग्रेस की सभाओं और कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। इसी कालेज में इण्टरमीडियेट की भी पढ़ाई जारी रखी। उनके अंदर देशप्रेम की भावना और नेतृत्व के गुण इन सभाओं में जाने से एक आकार लेने लगे। उनमें निर्भीकता और साहस के गुण बचपन से ही थे। स्कूल में खेलों में भाग लेने और माॅनीटर बनने से केसरी चन्द जी ने बहुत जल्दी ही अपने आगे के लिए रास्ता तैयार किया।
उन्होंने अभी इंटर की परीक्षा भी पास नहीं की थी, वे 10 अप्रैल, 1941 को रायल इन्डिया आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गये। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर चल रहा था। केसरी चन्द को 29 अक्टूबर, 1941 को मलाया के युद्ध के मोर्चे पर तैनात किया गया। जहां जापानी सेना ने उन्हें बन्दी बना लिया. उस समय भारत की आजादी के लिये जहां आंदोलन अपने निर्णायक दौर में था, वहीं सुभाष चन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना कर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। उनका नारा- ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ युवाओं को प्रभावित कर रहा था। केसरी चन्द जैसे जांबाज और राष्ट्र-प्रेम से ओतप्रोत युवाओं के लिये यह बहुत उत्साहित करने वाला था। वे ‘आजाद हिन्द फौज’ में शामिल हो गये। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने इनके भीतर अदम्य साहस, अद्भुत पराक्रम, जोखिम उठाने की क्षमता, दृढ संकल्प शक्ति को देखकर इन्हें आजाद हिन्द फौज में जोखिम भरे कार्य सौंपे। अपने कामों से वे बहुत जल्दी ही लोकप्रिय हो गये।
आजाद हिन्द फौज में केसरी चंद बहुत सारे बड़े मिशनों में शामिल होने लगे. इसी के तहत इम्फाल के मोर्चे पर एक पुल उड़ाने के प्रयास में ब्रिटिश फौज ने इन्हें पकड़ लिया। उन्हें बन्दी बनाकर दिल्ली की जिला जेल भेज दिया। ब्रिटिश राज्य और ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध षडयंत्र के अपराध में उन पर मुकदमा चलाया गया और जैसा कि हमेशा अंग्रेजों के राज में स्वतंत्रा सेनानियों के साथ होता था है, उन्हें मृत्यु दंड की सजा दी गई। जब उन्हें यह सजा सुनाई गई तो उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष 6 माह थी। इतनी छोटी उम्र में उनके अंदर इतनी चेतना थी कि वे अंग्रेजी हुकूमत के सामने झुके नहीं। जौनसार का यह सपूत ‘जयहिन्द’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों के साथ 3 मई, 1945 में हंसते हुये फांसी के फन्दे पर झूल गया।
वीर केसरी चन्द की शहादत ना केवल भारत की आजादी के आंदोलन में शहीद होने वाले नौजवानों की गौरवगाथा है, बल्कि जौनसार को गर्व से भर देती है। उत्तराखंड अपने इस सपूत की शहादत को याद करते हुये उनके अदम्य साहस को नमन करता है। हम सब लोग अपने इस सपूत को उनकी शहादत दिवस (3 मई, 1945) पर प्रणाम करते हैं।
शत्–शत् नमन् करूं मैं आपको......💐💐
🙏🙏
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