वीर संताजी घोरपड़े
वीर संताजी घोरपड़े
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"जो देश अपने वीर और महान सपूतों को भूल जाता है, उस देश के आत्मसम्मान को हीनता की दीमक चट कर जाता है।" ....... याद रखना दोस्तों।
हमें समय समय पर इन महान हस्तियों को याद करते रहना चाहिए। अपने बच्चों, छोटे भाई-बहनों, आदि को इन वीर सपूतों की वीर गाथाओं को समय-समय पर सुनाना चाहिए। इन अमर बलिदानियों के किस्से-कहानियों को कॉपी-पेस्ट करके अपने-अपने सोशल नेटवर्क पर डालना चाहिए व एक दूसरे शेयर करना चाहिए , ताकि और लोगो को भी इन अमर शहीदों के बारे में पता लग सके।
इतिहास का एक गौरवशाली चैप्टर जिसे हिन्दू छात्र और अध्येता नहीं जानते हैं...
सितंबर 1689 से 1696 वर्ष अर्थात सात वर्ष के भीतर मराठा सैन्य कमांडर संताजी घोरपड़े का बर्बर मुगलिया बादशाह औरंगजेब के साथ 11 बार घनघोर संघर्ष हुआ और इसमें से 9 बार औरंगजेब की सेना का जनाजा निकाला था। सत्रहवीं सदी के सबसे महानतम सैन्य जनरल संता जी ने।
लेकिन इतिहास की पुस्तकें, मुख्यधारा के वामपंथी इतिहासकारों के इतिहास लेखन से एकदम गायब अध्याय..!
ऐसा ही किया गया है..!
कुत्सित, भ्रष्ट, विकृत और अर्द्धसत्यों का तम्बू खड़ा किए ये मक्कार इतिहास के इस सर्वाधिक रोमांचक व प्रेरक अध्याय को दरकिनार करके चलते हैं!
लेकिन सत्य तो तदयुगीन कृतियों में, ऐतिहासिक वृत्तांतों के भीतर मुकम्मल तस्वीर लेकर प्रस्तुत हुआ है।
आज फिर से चर्चा इस अतुलनीय जनरल की।
देखिए उस महासूरमा के कारनामे...
1) सितंबर 1689 को औरंगजेब के जनरल शेख निजाम को रौंदा।
2) 25 मई 1690 को सरजाखान उर्फ रुस्तम खान को सतारा के पास घसीट घसीट कर मारा।
3) 16 दिसंबर 1692 को औरंगजेब के जनरल अली मर्दान खान को पराजित करके जिंजी के दुर्ग में बंधक बना दिया।
4) 27 दिसंबर 1692 में मुगल सेनापति जुल्फिकार अली खान को जमकर रगड़ा संताजी ने और 5 वर्ष से जिन्जी दुर्ग की घेराबंदी करने वाले इस मुगलिया सेनापति को उसकी औकात दिखाई।
5) 5 जनवरी 1693 ईस्वी में देसूर स्थित औरंगजेब की विशाल सैन्यवाहिनी को 2000 चपल मराठा घुड़सवारों के साथ लैस होकर संताजी ने पूरी तरह ध्वस्त कर डाला था।
बादशाह किस्मत के संयोग और ईश्वरीय दुआ से उस रात अपने शिविर में मौजूद ना होकर अपनी बेटी के तम्बूखाने में आराम फरमा रहा था, नहीं तो उसी दिन मुगलों का तम्बू उखड़ जाता पूरे देश से!
6) 21 नवम्बर 1693 ईस्वी को मुगल जनरल हिम्मत खान को विक्रमहल्ली, कर्नाटक में बुरी तरह रौंदा संताजी घोरपड़े ने...
7) जुलाई 1695 में खटाव के पास घेरा डाले उछल रही मुगल सेना का कचमूर निकाला इस महान जनरल ने।
8) 20 नवम्बर 1695 ईस्वी को कर्नाटक में तैनात औरंगज़ेब के शक्तिशाली जनरल कासिमखान को चित्रदुर्ग के पास डाडेरी में घेरकर उसका सिर उतार लिया। मुगल राजकोष के 60 लाख रुपए संताजी ने हथियाए।
9) 20 जनवरी 1696 को कासिम खान के सहायतार्थ तैनात किए गए मुगल सैन्य कमांडर हिम्मत खान बहादुर को बसवपाटन(डाडेरी से 40 मील पश्चिम) के युद्ध में अभिभूत करते हुए जन्नत प्रदान किया।
10) 26 फरवरी 1696 को मुगल जनरल हामिद उद्दीन खान ने संता जी को हराने में सफलता पाई थी।
11) अप्रैल 1696 में जुल्फिकार खान ने अरनी, कर्नाटक के पास एक बार युद्ध मैदान में संताजी को हराने में सफलता प्राप्त की थी।
आजीवन हिन्दू पद पादशाही और मराठा स्वाधीनता आन्दोलन के अपराजेय स्वर को ऊँचाई देने वाले इस अप्रतिम मराठा सेनानी से मुगल कितना भय और खौफ खाते थे तथा उनके मन में एशिया के इस सर्वोच्च सैन्य जनरल के प्रति कितनी नफरत भरी थी, इसका प्रमाण मुगलों के दरबारी इतिहासकार खाफी खान के शब्दों में पढ़िए:
[ "...... जिस किसी ने भी संताजी का सामना किया, उन्हें या तो मार दिया गया या घायल कर दिया गया या बंदी बना लिया गया, या यदि कोई भाग निकला तो अपनी सेना और जान माल की हानि के साथ केवल अपनी जान बचा पाने में सफल हो पाया।
......यह शापित कुत्ता (संताजी घोरपड़े) जहाँ भी गया, किसी भी शाही अमीर में इतनी हिम्मत व साहस नहीं हुआ कि इसका मुकाबला कर सकें। किसी के करते कुछ न हो सका। मुगल सेना उसकी शक्ति व प्रतिष्ठा को अकेले इसने जितनी क्षति पहुँचाई है, शायद किसी भारतीय शक्ति ने कभी पहुँचाई हो। स्थिति यह है कि मुगल खेमे का बड़े से बड़ा साहसी सूरमा दक्कन की जमीन पर भय व खौफ के साए में जी रहा है!
बादशाह द्वारा इस कुत्ते को नेस्तनाबूद करने के लिए जब अपने सबसे बडे़ जनरल फिरोज जंग को तैनात किया गया और उसे खबर मिली कि संताजी उससे सिर्फ 16 से 18 मील की दूरी पर आ खड़ा हुआ है घेरने, उस मुगल सैन्य कमांडर का चेहरा खौफ से बदरंग हो उठा। मुगल कमांडर के पास कोई रास्ता नहीं था, लिहाजा उसने सैन्य शिविर में घोषणा की कि वह संताजी से मुकाबला करने जा रहा है, लेकिन सेना को आगे भेजते हुए यह बड़का मुगल तोप गोल चक्कर वाले रास्ते से कल्टी मार बीजापुर की तरफ भाग गया।"
(मुंतखुब-उल-लुआब, खाफी खान)]
मुगलों के दरबारी इतिहासकारों द्वारा तथा फारसी स्रोतों में इस दुर्दांत सूरमा के बारे में जिस तरह के विशेषण प्रयुक्त हुए हैं, वे सबसे बडे़ व वास्तविक प्रमाण हैं कि औरंगजेब और मुगल साम्राज्य के गुरूर व दर्प को कितना अभिभूत कर डाला था इस मराठा रक्त ने!
प्रसिद्ध इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक "भारत के सैन्य इतिहास" में संताजी के बारे में लिखते हुए इसी बात को रेखांकित करते हैं:
("संताजी की ख्याति व प्रसिद्धि का सबसे बड़ा स्मारक मुगल सेना के सभी सैन्य कमांडरों के मन में उनके द्वारा संचारित भय व खौफ है, और यह सब फारसी स्रोतों में संताजी के नाम के साथ विशेषण के रूप में उपयोग किए जाने वाले शाप और गालियों में ईमानदारी के साथ परिलक्षित होता हुआ दिखता है।")
संताजी के नेतृत्व में हिन्दू धर्म और संस्कृति के रक्षार्थ प्रतिबद्ध मराठा स्वराज और हिन्दू पद पादशाही की भयानक मुठभेड़ का सिलसिलेवार विवरण इतालवी यात्री तथा मुगल दरबार में तैनात तोपची निकोलाओ मनूची की शानदार कृति "स्टोरिया द मोगोर" (मुगल कथाएं) में अंकित है। सर्वाधिक रोमांच व जीवन्त अहसास पाने के लिए अध्येताओं को इन अंशों को इसी पुस्तक से पढ़ना चाहिए।
"इतिहास के पृष्ठों में एक जनरल तथा सैन्य कमांडर के रूप में प्रतिष्ठित संताजी की तुलना तैमूर और चंगेज खान जैसे महान एशियाई जनरलों से की गई। यह वास्तविक तुलना और हकीकत भी है। संताजी हमेशा 20 से 25 हजार तीव्रगामी अश्वों से लैस घुड़सवार सेना का नेतृत्व करते थे। गुरिल्ला रणनीति के साथ पार्थियन युद्ध सैन्यकला से उनके कौशल की तुलना की जा सकती है। कारण, वह रात्रि में ना केवल मार्च करते थे बल्कि तीव्र गति से लंबी दूरी भी तय करते थे। व्यापक क्षेत्र में सैन्य गतिविधियों को अंजाम देते हुए शत्रु खेमे में आतंक की सृष्टि कर देते थे। सटीकता तथा समय की पाबन्दी के साथ प्रचंड आक्रामक कार्यवाही जो चंगेज खान व तैमूरलंग के अलावा किसी भी एशियाई सेना के लिए नामुमकिन थी, संताजी के सैनिक कारनामों में यह सर्वत्र दिखती है। दुश्मन की योजना और परिस्थितियों के भीतर हर बदलाव का तुरन्त फायदा उठाने के लिए अपनी रणनीति को बदलते हुए लम्बी दूरी तक फैली बड़ी संख्या में सैनिकों को संभालने और विफलता के जोखिम के बिना संयुक्त सैन्य प्रहार को अंजाम देने की जन्मजात प्रतिभा संताजी मे जन्मजात दिखती है।
(मिलिट्री हिस्ट्री ऑफ इण्डिया; सर यदुनाथ सरकार.)
अपनी इस असाधारण सैन्य रणनीति के चलते संताजी मराठा सेनापतियों में छत्रपति शिवाजी के बाद सर्वोच्च घुड़सवार सेनापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनकी इस विरासत का विस्तार और क्रियान्वयन आगे पेशवाओं के शासनकाल में बाजीराव प्रथम और रघुजी भोंसले द्वारा सफलतापूर्वक किया गया। मराठों की सैन्य सर्वोच्चता के प्रवर्तक संताजी ही थे जिन्हें इतिहास के भीतर वह गौरव और महत्ता मिली नहीं, जिसके वास्तविक हकदार वे थे!
मराठा इतिहास के भीतर सर्वोच्च कमांडर तीन ही गिने गए; छत्रपति शिवाजी महाराज, संताजी घोरपड़े और बाजीराव।
इतिहास के चमकदार पृष्ठों में छत्रपति राजे और बाजीराव का नाम तो फिर भी हिन्दू जनसमुदाय जानता है। काफी हद तक बूझता गुनता है ! लेकिन संताजी घोरपड़े के बारे में अध्येताओं से चर्चा कीजिए तो...?
सन 1680 में औरंगजेब को समझ आ चुका था कि शिवाजी को रोकने उसे स्वयं ही दक्खन जाना होगा। पांच लाख की विशाल फौज लेकर वह दक्खन की ओर निकला और उसके वहां पहुंचने के पहले ही छत्रपति की मृत्यु हो गई।
औरंगजेब को लगा अब तो मराठों को पराजित करना अत्यंत आसान होगा।
परन्तु छत्रपति सम्भाजी ने 1689 तक उसे जीतने नहीं दिया। अपने सगे जीजा की दगाबाजी की वजह से छत्रपति सम्भाजी पकड़े गए और औरंगजेब ने अत्यन्त ही क्रूर और वीभत्स तरीके से उनकी हत्या करवा दी।
अब छत्रपति बने राजाराम मात्र 20 वर्ष के थे और औरंगजेब के अनुभव के सामने कच्चे थे। एक बार फिर उसे दक्खन अपनी मुट्ठी में नज़र आने लगा था।
यहीं से इतिहास यह बताता है कि छत्रपति शिवाजी ने किस आक्रामक संस्कृति की नींव डाली थी। हताश हो कर हथियार डालने के बजाय संताजी घोरपड़े और धनाजी जाधव के नेतृत्व में राजाराम को छत्रपति बना कर संघर्ष जारी रहा।
सन 1700 में छत्रपति राजाराम भी मारे गए।
अब उनके दो साल के पुत्र को छत्रपति मान कर उनकी विधवा ताराबाई, जो कि छत्रपति शिवाजी के सेनापति हंबीराव मोहिते की बेटी थी, आगे आई और प्रखर संघर्ष जारी रहा। समय पड़ने पर ताराबाई स्वयं भी युद्ध के मैदान में उतरी।
संताजी और धनाजी ने मुगल सम्राट की नींद हराम कर दी। कभी सेना के पिछले हिस्से पर, कभी उनकी रसद पर तो कभी उनके साथ चलने वाले तोपखाने के गोला बारूद पर हमले कर मराठों ने मुगलों को बेजार कर दिया। सब लोग इस खौफ में ही रहते थे कि कब मराठे किस दिशा से आएंगे और कितना नुकसान कर जायेंगे।
एक बार संताजी और उनके दो हजार सैनिकों ने सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर रात में औरंगजेब की छावनी पर हमला बोल दिया और औरंगजेब के निजी तंबू की रस्सियां काट दी। तंबू के अंदर के सभी लोग मारे गए। परन्तु संयोग से उस रात औरंगजेब अपने तंबू में नहीं था इसलिए बच गया।
27 साल मुगलों का सम्राट, महाराष्ट्र के जंगलों में छावनियां लगा कर भटकता रहा। रोज यह भय लेकर सोना पड़ता था कि मराठों का आक्रमण ना हो जाए।
27 साल कुछ हजार मराठे लाखों मुगलों से लोहा भी ले रहे थे और उन्हें नाकों चने भी चबवा रहे थे। 27 वर्ष सम्राट अपनी राजधानी से दूर था। लाखों रुपए सेना के इस अभियान पर खर्च हो रहे थे। मुगलिया राज दिवालिया हो रहा था। अन्तत: सन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई। 27 वर्षों के सतत युद्ध और संघर्ष के बाद भी मराठों ने घुटने नहीं टेके। छत्रपति के दिए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों मराठे कट गए।
यह इतिहास भी कहाँ पढ़ाया जाता है..?
कितने लोग है जिन्हें ताराबाई, संताजी और धनाजी के नाम भी मालूम है, पराक्रम तो छोड़ ही दीजिए..?
शत–शत नमन करू मैं आपको....💐💐💐💐
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