राव तुलाराम जी

राव तुलाराम
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भारत की आजादी के लिए दर-दर भटकता एक महानायक .....
🌺🌹🥀🙏🌻🌷💐
तुम भूल ना जाओ उनको,
इसलिए लिखी ये कहानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी...
🌺🌹🥀🙏🌻🌷💐

9 दिसम्बर 1825 को जन्में राव तुलाराम जी का 23 सितंबर को हरियाणा राज्य वीर शहीद दिवस मनाता है क्योंकि 1863 मे इसी दिन राव तुला राम की मृत्यु हुई थी।

हवाई मार्ग से दिल्ली आने और जाने वाले जिस सड़क का इस्तेमाल करते हैं उसका नाम है राव तुला राम मार्ग। शांति पथ से आगे बढ़ते हुए जैसे ही आप आरकेपुरम के ट्रैफिक-सिग्नल को पार करते हैं, राव तुला राम मार्ग शुरू हो जाता है, जो इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास से होते हुए गुरुग्राम (गुडगांव) की ओर बढ़ जाता है और दिल्ली-अजमेर एक्सप्रेसवे से जुड़ जाता है।

इसका मतलब ये हुआ कि दुनियाभर से दिल्ली आने वाले और दिल्ली से दुनिया भर में जाने वाले बिना राव तुला राम मार्ग पर आए अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सकते। लेकिन भागती-दौड़ती जिंदगी में शायद ही कभी आप यह जानने की कोशिश करते होंगे कि आखिर राव तुला राम थे कौन?

हरियाणा का वीर शहीद
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हो सकता है कि आज इस नाम की अहमियत लोगों के लिए सिर्फ एक साइन-बोर्ड से ज्यादा न हो लेकिन रेवाड़ी, हरियाणा का यह सपूत 1857 की क्रांति का महानायक था। 23 सितंबर को हरियाणा वीर शहीद दिवस मनाता है क्योंकि 1863 में इसी दिन राव तुला राम की मृत्यु हुई थी। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में पहला योगदान हरियाणा के सपूतों का है। इसकी पहली चिंगारी अंबाला में ही भड़की थी जो बाद में मेरठ को केंद्र बनाकर पूरे देश में फैली।

रामपुरा, रेवाड़ी के जागीरदार राव पूरन सिंह और रानी ज्ञानकौर के यहां 9 दिसंबर 1825 को एक बच्चे ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने बड़े प्यार से तुला राम रखा। राव तुला राम की शिक्षा-दीक्षा में मां-बाप ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

बचपन में ही वह हिंदी, उर्दू, फारसी में निपुण हो चुके थे और अंग्रेजी में भी उनका ज्ञान अच्छा-खासा था। लेकिन क्षत्रियता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। इसीलिए जब पिता की मौत के बाद सिर्फ 14 बरस की उम्र में उन्हें रामपुरा की जागीर संभालनी पड़ी तो उनके कौशल में कहीं कोई कमी नहीं थी।

चिंगारी भड़काने वाला क्रांतिकारी
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पढ़े-लिखे और विश्व-पटल पर हो रही हलचलों से पूरी तरह होशियार तुला राम अंग्रेजों के अत्याचार और संसाधनों की लूट देख रहे थे और अपने आक्रोश को अर्थ देने का वातावरण तौल रहे थे। दरअसल, 1857 की शुरुआत ही में अंग्रेजी ज़ुल्म के खिलाफ जन-मानस की बेचैनी अपने चरम पर पहुंच चुकी थी. माहौल को बस एक हलकी सी चिंगारी की जरूरत थी। इतिहास बताता है कि हरियाणा के इस होशियार देशवासी ने अपनी योजना के लिए इस समय को गंवाना उचित नहीं समझा।

17 मई 1857 को तुला राम ने अपने एक कजिन भाई राव गोपाल देव और कुछ सौ साथियों के साथ रेवाड़ी के तहसीलदार को गद्दी से उतारकर रेवाड़ी का संचालन अपने हाथ में ले लिया। देखते ही देखते पांच हजार सैनिकों का एक समूह राव तुला राम के नेतृत्व में आकर खड़ा हो गया। इस ताकत को हथियार बनाने के लिए उन्होंने पहला काम ये किया कि शस्त्र-निर्माण का एक कारखाना खोल लिया जहां गोला-बारूद और बंदूकें बनाई जाने लगीं।

राव तुला राम का अगला पड़ाव था दिल्ली, जहां बहादुर शाह ज़फर के पास जमा होकर विद्रोही रियासतें अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए मैदान में आ चुकी थीं। तुला राम ने जनरल बख्त खान के जरिए दिल्ली-पतन से दस दिन पहले 45 हजार की रकम भेजी, साथ ही दो हजार गेहूं के बोरे और दूसरी जरूरी सुविधाओं को रवाना किया और खुद दिल्ली के साय में बसे रेवाड़ी की नाके बंदी कर ली।

अंग्रेजों से लिया लोहा
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16 नवंबर 1857 को दिल्ली से महज डेढ़ सौ किलोमीटर दूर नसीबपुर, नरनौल, रेवाड़ी में राव तुला राम का सामना अंग्रेजों से हुआ। इतिहास बताता है कि राव के सिपाहियों का पहला हमला इतना रणनीतिक और जोरदार था कि बात अंग्रेजी फौज के अनुमान से आगे निकल गई, नतीजा ये हुआ कि ब्रिटिश सेना की कमान संभालने वाले कर्नल जॉन ग्रांट गेरार्ड और कैप्टन वालेस को जान से हाथ धोना पड़ा जबकि लेफ्टिनेंट ग्रेजी, केनेडी और पियर्स बुरी तरह जख्मी हुए. लेकिन इससे पहले कि राव तुलाराम के हाथों कर्नल गेरार्ड की मात होती, ब्रिटिश समर्थक नाभा, कपूरथला, जींद और पटियाला की फौजें, मदद के लिए पहुंच गयीं।

देखते ही देखते दृश्य बदल गया और राव तुला राम का लश्कर टूट गया। उनके सेनापति राव किशन सिंह, राव रामलाल और शहजादा मोहम्मद आजम और दूसरे शीर्ष-सैनिक मारे गए। अंग्रेजों के लिए ये बड़ी जीत थी। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे महत्वपूर्ण मानते हुए लेफ्टिनेंट फ्रांसिस डेविड मिलेट ब्राउन को इस लड़ाई में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया, जो कि उस जमाने में गौरव की बात थी।

रेवाड़ी अंग्रेजों के पास दुबारा चले जाने पर तुलाराम अपनी बची खुची ताकत के साथ राजस्थान में तात्या टोपे की सेना के साथ हो गए। ये साथ भी साल भर का था क्योंकि अंग्रेज तात्या पर भी भारी पड़ गए। इतिहास में तुलाराम के बारे में शोध करते जाइए और आप यकीनन इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि तुलाराम सच्चे देश-प्रेमी थे वर्ना दूसरी ब्रिटिश-समर्थक पड़ोसी-रियासतों की तरह वह भी ऐश की पराधीनता स्वीकार कर लेते और रेवाड़ी के शासक बने रहते।

रूस के लिए हुए रवाना
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1857 की क्रांति में अपने कौशल दिखा चुके तुलाराम का दूसरा रूप 1959 के आस-पास नजर आता है जब लगभग 34-35 बरस के तुलाराम, एक बड़ी मुहिम के लिए खुद को आगे करते हैं। राव तुलाराम की जीवनी लिखने वाले के.सी.यादव लिखते हैं कि ‘19वीं सदी के मध्य में, मध्य-एशिया में रूस की हलचल में तेजी आई जिसका असर ब्रिटिश-साम्राज्य और किसी उपाय की बाट जोह रहे भारतीयों को, प्रभावित किए बिना नहीं रह सका। सेंट पीटर्सबर्ग, भारतीयों पर हो रहे जुल्म से अनजान नहीं था।

भारत की ब्रिटिश विरोधी रियासतें जिन्होंने 57 के संग्राम में मुंह की जरूर खाई लेकिन अंग्रेज उन्हें नए मंसूबे बनाने से नहीं रोक सके। गदर के बाद इन रियासतों के स्व-घोषित शासकों के एक समूह ने तय किया कि रूसी जार के पास उनमें से कोई दूत बनकर जाए और मदद की दरख्वास्त करे। रेवाड़ी के नरेश ने इस दुर्गम और तकलीफदेह यात्रा के लिए खुद को पेश किया और मारवाड़, बीकानेर और जयपुर के जार के नाम लिखे गए अलग-अलग पत्रों के साठ, एक दस्ते समेत, रूस का रुख किया।

सेंट-पीटर्सबर्ग के संग्रहालय में सरदार सिंह बहादुर राजा बीकानेर का पत्र आज भी सुरक्षित है। जो ये साबित करने के लिए काफी है कि दरअसल तुलाराम भारत के पहले राजदूत हैं जो अपनी आजादी के लिए रूसी मदद के लिए रूस गए। इस लंबी और यातना भरी यात्रा में तुलाराम का सबकुछ छूट गया और उनके साथी गिरफ्तार हो गए, इस पर कुछ संशय है कि तुलाराम रूस पहुंचे या नहीं लेकिन वह रूस के जार तक अपने पत्र पहुंचाने में कामयाब हुए, इसके साक्ष्य मौजूद हैं।

19वीं सदी का मध्यकाल यात्राओं के लिए इतना भी सुगम नहीं था कि आसानी से इसे पूरा किया जा सकता। लेकिन पूरे हिंदुस्तान की आजादी का जो ख्वाब हरियाणा के इस क्षत्री अहीर ने देखा था उसे पूरा करना के लिए वह निकल पड़ा था। अपने इस मिशन में पहले वह इरान गए या रूस इस पर भी संशय है लेकिन जब वह काबुल पहुंचे तो उनका गिरता स्वास्थ्य गंभीर स्थितियों में पहुंच गया था और 23 सितंबर 1862 या 1863 में काबुल में उनकी मृत्यु हो गई।

राव तुलाराम ने 57 से 62 तक महज 6 साल में भारत की आजादी के लिए जो जिम्मेदारी निभाई और जिन यातनाओं के चलते उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े, आजाद-भारत को उनके सम्मान में अस्पताल और मार्ग के नामकरण से आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना चाहिए था कि राष्ट्र उन्हें नमन करता। हां हरियाणा उन्हें ‘राज-नायक’ कहता है उनकी पुण्यतिथि को वीर शहीद दिवस के रूप में मनाता है।

हरियाणा में अहीर समुदाय के लिए एक कहावत बड़ी मशहूर थी-
‘यूं आकर कही अज़ीम ने सुनो भई बस्ती गांव,
बचना मर्द अहीर से वर्ना लड़कर कर लो नाम’।

राव तुलाराम बेशक इसी बहादुर समुदाय के थे लेकिन क्या उनका योगदान सिर्फ हरियाणा या रेवाड़ी तक ही सीमित था....?

शत-शत नमन करूँ मैं आपको..... 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP


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