अमर शहीद श्रीदेव सुमन
श्री देव सुमन
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अंग्रेजी हुकूमत में हिन्दूस्तान की जनता उनकी दमनकारी नीति से तो त्रस्त थी ही, लेकिन देश के रियासतों के नवाबों तथा राजाओं ने भी जनता पर दमन और शोषण का कहर ढा रखा था। युद्ध के बहाने अभावग्रस्त प्रजा को लूटा जा रहा था। एसे समय बालक श्री दत्त ने जो बाद में श्री देव सुमन के नाम से विख्यात हुए, टिहरी रियासत के खिलाफ जनक्रान्ति का विगुल बजा कर चेतना पुंज का कार्य किया।
वीर सुमन का जन्म टिहरी गढ़वाल की बमुण्ड पटृ के जौल गांव में 25 मई, 1915 को हुआ था। उनके पिता का नाम पं. हरिराम बडौनी तथा माता का नाम तारा देवी था। इनके दो बड़े भाई पं. कमलनयन बडौनी व पं. परशुराम बडौनी तथा एक बहन गायत्री देवी थी। पिता वैद्य का कार्य करते थे तथा अक्सर गांव से बाहर ही रहते थे। इसलिए पूरे परिवार की देख-रेख माता तारा देवी ही करती थी। अभी बालक सुमन 3 वर्ष का ही था कि उनके पिता का देहांत हो गया। पिता के इस आकस्मिक देहवासन से परिवार का सारा भार माता जी पर आ पड़ा।
बालक सुमन ने प्राईमरी की परीक्षा चंबा स्कूल से पास की और सन 1929ई0 में टिहरी मिडिल स्कूल से हिन्दी की मिड़िल परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। मिडल परीक्षा के बाद वे शिक्षा के लिए राज्य की सीमा से बाहर निकल कर देहरादून चले गये। वहां वे कई प्रमुख व्यक्तियों के सम्पर्क में आये। वहां उन्होने लगभग डेढ़ वर्ष तक सनातनधर्म स्कूल में अध्ययन का कार्य भी किया। इसी दौरान वे सन् 1930 के नमक स्त्याग्रह में कूद पड़े ओर इस सिलसिले में उन्हे 13-14 दिन जेल में रखा गया और फिर कम उम्र बालक समझ कर छोड़ दिया।
इसके बाद स्कूल अध्यापन के साथ साथ पंजाब युनिवर्सिटी व हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं की तैयारी की। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय की रत्न भूषण और प्रभाकर तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद् और साहित्य रत्न परीक्षाएं सम्मान सहित पास कर ली और इस प्रकार हिन्दी साहित्य अध्ययन के अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।
तत्पश्चात दिल्ली में जाकर अध्ययन व अध्यापन कार्य के साथ-साथ सुमन साहित्य में भी व्यस्त रहते थे। उन्होने ‘‘सुमन सौरभ’’ नाम से अपनी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित किया। 32 पेजों का यह संग्रह 17 जून 1937 को प्रकाशित हुआ था। उन्होने कुछ समय तक भाई परमांनन्द द्वारा संचालित हिन्दु महासभा का मुख्य पत्र ‘‘हिन्दु’’ में तथा जगदगुरु श्री शंकराचार्य द्वारा संचालित सप्ताहिक ‘‘धर्म-राज्य’’ के कार्यालय में भी काम किया। दिल्ली प्रवास के दौरान इनकी मुलाकात कई महान नेताओ से भी हुई जैसे आचार्य डा0 जाकिर हुसैन, नारायण दत्त, तथा प्रसिद्ध साहित्यकार कालेलकर के सम्पर्क में आये। कालेलकर जी सुमन से प्रभावित होकर इनको वर्धा ले गये यहीं पर महात्मा गांधी जी के दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
वर्धा में 5-6 महीने रहने के बाद अप्रैल 1937 में सुमन सीधे शिमला गये और वहां स्वागतकारिणी समिति का निर्माण (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) करने व कार्यालय स्थापित करने में सहायता दी। फिर कुछ महीनों तक इन्होने दिल्ली व पंजाब के दर्जनो शहरों का दौरा किया। शिमला सम्मेलन में अपनी योग्यता, आकर्शक स्वभाव व व्यवहार के कारण ये लगभग सभी साहित्य महारथियों के स्नेह पात्र बन गये।
शिमला सम्मेलन के बाद वे कुछ दिनों तक दिल्ली रहे और उन्ही दिनों वे दिल्ली में विभिन्न रोजगारों में लगे हुए गढ़वाल वासियों के सम्पर्क में आये और शीघ्र ही उनके सुख-दुःख के साथी बन गये। अतः उनके प्रयत्नों से 22 मार्च 1938 को दिल्ली में ‘‘गढ़देश सेवा संघ’’ की स्थापना की। समय-समय पर विशेष कर गर्मियों की छुटियों में वे अपने गांव जाते और वहां की समस्याओं के बारे में सोचा करते। सन् 1938 में ही उनका विवाह पडियार गांव की कन्या विनयलक्ष्मी के संग हुआ। शादी के कुछ दिनों बाद ही उन्होने श्रीनगर में गढ़वाल जिला कांग्रेस कमेटी द्वारा आयोजित राजनीतिक सम्मेलन में भाग लिया और यहां सक्रिय सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के संपर्क में आये और उन्होने गढ़वाल के दोनो खण्डो राज्य व ब्रिटिश गढ़वाल की सेवा का संकल्प लिया। इस सम्मेलन में उन्होने टिहरी गढ़वाल राज्य की पीड़ित जनता के कष्टों के बारे में श्री पंडित नेहरु और विजयालक्ष्मी नेहरु को विस्तृत से बताया। बाद में सुमन ऋषिकेश, रामपूर और मसूरी सम्मेलनों में भी शामिल हुए। टिहरी के कष्टों के बारे में प्रस्ताव पारित करवाये। इसी सिलसिले में उनका राज्य गढ़वाल के भीतर व बाहर के कई कार्यकर्ताओं से परिचय हुआ उनके साथ विचारो का आदान-प्रदान किया। आखिर लम्बे विचार विमर्श के बाद 23 जनवरी 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मण्डल की स्थापना कर दी गयी। सुमन इसके मन्त्री चुने गये।
17-18 फरवरी 1939 को लुधियाना में ‘‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद’’ का अधिवेशन हो रहा था। मन्त्री सुमन ने उस सम्मेलन में भाग लिया और टिहरी में पीड़ित जनता के कष्टों के बारे में बताया। अब श्री सुमन की गतिविधियां बहुत बढ़ गई थी। अपने निशिचत ध्येय की प्राप्ति के लिये वे टिहरी, देहरादून से लेकर दिल्ली, शिमला, मुम्बई और वर्धा तक भाग-दौड करते रहे। इसी दौरान नरेश ने एक रजिस्ट्रेशन आफ एसोसिएशन्स एक्ट पास करके स्वतंत्रता सार्वजनिक संस्थाओं का राज्य के अन्दर स्थापित होना व शुरु होना असम्भव कर दिया। प्रजा मण्डल की इस नयी स्थिती को लेकर प्रबल मतभेद पैदा हो गया। प्रजा मण्डल अब रजिस्टर्ड नही हो सकता था। इससे अनेक उत्साही कार्यकर्ता प्रजामण्डल से उदासीन हो गये। श्री देव सुमन ने टिहरी की जनता के कष्टों को दूर करने का कोई और उपाय सोचने लगा। अतः टिहरी गढ़वाल की पीड़ित जनता के लिये राज्य में रह कर संघर्ष करने की भावना लिये श्री सुमन ने मई 1940 को राज्य के भीतर प्रवेश किया। उन्होने टिहरी नरेश के अधिकारीयों से अनुरोध किया कि राज्य में नागरिक स्वाधीनता की स्थापना की जाये। पर कोई अशाजनक परिणाम नही निकला। फिर वे टिहरी में सार्वजनिक सभा करके जनता को जागरुक करने लगे। परन्तु टिहरी के मजिस्ट्रेट ने सभाबन्दी कानून का पहली बाद इस्तेमाल करते हुए उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया कि उनकी आज्ञा लिये बिना भाषण नही कर सकते।
इसी दौरान टिहरी कालेज के छात्रों ने युनियन बनानी चाही परन्तु राज्य अधिकारीयों के निर्देश पर एसा ना करने का आदेश आया। छात्रों ने आन्दोलन कर दिया, परिणाम स्वरुप दो छात्र निकाले गये और कुछ को जुर्माना भी लगाया गया। सुमन को टिहरी के छात्रों से साहस का जब पता लगा तो वो उनका होसला बढ़ाने टिहरी आ गये। उन्होने दोनो निकाले गये छात्रों को बनारस भेजा जहां ‘‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’’ का सम्मेलन चल रहा था। कुछ समय पश्चात टिहरी नरेश ने जब आय कर कानून लागू किया तो राज्य के धनवान लोगों ने भी प्रजा मण्डल को सहयोग देना आरम्भ कर दिया। सुमन ने इसका लाभ उठाते हुए 19 मार्च 1941 को देहरादून में प्रजा मण्डल के विशेष अधिवेशन का आयोजन किया और प्रस्ताव पारित हुआ कि टिहरी राज्य के अन्दर भी प्रजा मण्डल का गठन किया जाये। यही सोच कर जब वे 30 अप्रैल 1941 को अपने गांव होते हुए टिहरी पहुंचे तो राज्य की पुलिस ने सबसे पहले उन्हे हिरासत में ले लिया। उन्हें दो रात पुलिस इंसपेक्टर के मकान पर ही नजरबन्द रखा गया। उन्हें उसी दिन से डराया धमकाया जाने लगा कि तुम माफी मांगो नही तो इस काल कोठरी से जिन्दा नही निकलोगे। तब सुमन ने कहा कि तुमने अन्य राज बन्दियों को अपने दमन से झुका लिया है, लेकिन मुझ से एसी आशा ना करो। मैं तिल भर भी अपने मार्ग से नही हटूंगा। इतना सुनते ही उन पर बैल्ट लगाए गये और पैंतीस सेर वजन वाली बेड़ियां उनके पैरों में डाल दी गई। खाने के लिये उन्हे भूसे और रेत में मिश्रित वही रोटियां दी जाती, जो अन्य राज बन्दीयों को दी जाती थी।
इस तरह के भोजन देख कर सुमन ने खाने से इन्कार कर दिया और कहा मेरे साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करो। इन रोटियों को तो जानवर भी नही खायेंगे। वे सात दिन तक बिना खाए-पीए रहे। आखिर सातवें दिन जेल कर्मी झुके और उन्हे उनको विस्तर, कपड़े व हजामत का सामान उन्हे दिया। और बेड़ियां भी निकाल दी गई तथा पत्राचार करने की आज्ञां भी उनको मिल गई, अब अधिकारी समझ गए की सुमन माफी नही मांगेगा तो उन्होने सुमन पर राज-द्रोह का मुकद्दमा चलाये जाने की तैयारी करने लगे ताकि सुमन लम्बे समय तक जेल की कोठरी में रह सके। टिहरी राज्य अधिकारी राज-द्रोह साबित करने के लिये तथ्य जुटाने लग गये। उन्होने सुमन के घर जाकर भी उनके लेख व दस्तावेज एकत्रित किये लेकिन राज्यधिकारीयों ने कुछ बनावटी व झूठे गवाह तैयार किये और मजिस्ट्रेट रामराज सिंह की अदालत में टिहरी राज्य दंड संग्रह की धारा 124(अ) के अन्तर्गत मुकद्दमा दायर कर दिया और 21 फरवरी 1944 को टिहरी जेल में सुमन के मुकद्दमे की कार्यवाही शुरु हुई। सुमन पर टिहरी नरेश व उनके शासन के खिलाफ घृणा, द्वेष व विद्रोह फैलाने का अभियोग लगाया गया। कहा गया कि उनका प्रजामण्डल रजिस्टर्ड नही था इसलिये उनकी सब कार्यवाहीयां गैर कानूनी हैं। इसके समर्थन में 8-10 झूठे गवाहों के बयान दर्ज कराये गये तथा सुमन के लिखे कुछ दस्तावेज पेश किए गये। अतः सुमन ने इन सब के जवाब में यही कहा की यह सब गवाह झूठे हैं। यह मेरे साथ घोर अन्याय है। लेकिन राज्यधिकारीगण चाहते थे मजिस्ट्रेट ने सुमन को दो वर्ष के कठोर कारावास और 200 रुपये जुर्माने की सजा दे दी।
अब वो एक सजा प्राप्त बंदी हो गये थे और उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाने लगा। उनके कपड़े, विस्तरे उन से ले लिये गये और जेल का एक फटा कम्बल व टाट एक कुर्ता एक टोपी व एक लंगोट उन्हे दे दिया गया। साथ ही उन्हे रोज तंग किया जाने लगा। यह देख कर सुमन ने 29 फरवरी से जेल में अनशन शुरु कर दियां चार दिन के बाद पुलिस कर्मी झुके सुमन को आश्वासन दिया कि वे प्रजामण्डल के प्रशन पर महाराजा से लिखा-पढ़ी कर सकेगे। मार-पीट व अत्याचार बन्द कर दिये गये। वार्ड में घूमने की भी अनुमति मिल गई थी। यह भी आश्वासन दिया गया कि कपड़ो व किताबों व पत्र आदि के बारे में उच्च अधिकारीयों तक सिफारिश की जायेगी। तब जाकर सुमन का यह दूसरा अनशन समाप्त हुआ। उपरोक्त आश्वासनों के बाद सुमन का जेल जीवन पहले से कुछ कम कष्ट प्रद हो गया। लगभग एक मास तक वे प्रतीक्षा करते रहे कि अधिकारी अपने वचन को कहां तक पूरा करते हैं, लेकिन कोई निश्चित उत्तर नही मिला। सुमन के बार-बार पुछने पर भी कोई सन्तोषजनक जवाब नही मिलता। बल्कि उन पर अत्याचार और जुल्म शुरु होने लगे। उन पर बैंत भी लगने लगी।
अब सुमन की आंखे खुली, वे समझ गए कि अधिकारियों ने उन्हे समाप्त कर देने का निश्चय कर लिया है। उन्होने देखा कि राज्य में चारों और दमन के कारण शान्ति है, कार्यकर्ता भी चुपचाप बैठे हैं और जेल के दुरव्यवहार के कारण उनका जीवन स्वयं संकट में है। अतः एक दिन उन्होने राज्य नरेश के सम्मुख अपनी तीन मांगो को पहुचाने के लिये कहा। 1-प्रजामण्डल को रजिस्टर्ड करके, राज्य के अन्दर सेवा करने का मौका दिया जाये। 2-मेरे झूठे मुकद्दमें की अपील स्वयं महाराज जी सुने। 3-मुझे पत्र-व्यवहार करने आदि की सुविधाएं दी जाये। अगर पन्द्रह दिनो के अन्दर मुझे इन मांगों का उत्तर नही मलेगा तो मैं आमरण अनशन शुरु कर दूंगा और तब मेरे निश्चय को कोई नही टाल सकेगा। जब किसी प्रकार का उत्तर नही मिला तो 3 मई 1944 से उन्होने अपना एतिहासिक अनशन शुरु कर दिया। अनशन शुरु होते ही उन पर अमानवीय अत्याचार शुरु कर दिये गये। उन्हे रोज बेतों व डंडों से पीटा जाता था। और खाना खिलाने की कोशिश की जाती थी। जब सब प्रयत्न बैकार गये तो उन्हे पांचवे दिन आठ नंबर बैरक से निकाल कर जेल अस्पताल की एक कोठरी में डाल दिया गया। वहां एक तो उनके पैरों में बेड़ियां पड़ी रहती, दूसरे रोज बैंत लगाए जाते। उनको जबरदस्ती दूध पिलाने की कोशिश की जाती। उनके मुह से खून निकलने लगता पर उनका मुह नही खुल पातां जब लगातार यही क्रम चलता रहा तो अठाइसवें दिन एक डाक्टर व मजिस्ट्रेट जेल में आये ओर उन्होने सुमन के मुंह में नली से दूध डाला पर फौरन सुमन ने उल्टी कर सारा दूध बाहर निकाल दिया। इस तरह 48 वें दिन डा0 बेलीराम खुद सुमन के पास आये और अनशन तौड़ने को कहा, पर सुमन नही माने। सुमन ने कहा मेरी तीन मांगे तुरन्त स्वीकार हो, तभी अनशन तौडूंगा।
एक ओर सुमन टिहरी जेल में तिल-तिल कर अपने शरीर को नष्ट कर रहे थे दूसरी और उनके शुभ चिन्तकों और आम जनता को सुमन के अनशन के बारे गुमराह किया जा रहा था। डा0 बेलिराम ने पुनः सुमन को मिल कर कहा कि तुम अनशन तोड़ दो। 4 अगस्त को महाराज का जन्म दिन है, उस दिन तुम्हे छोड़ दिया जायेगा। इस पर सुमन ने कहा आप एसा मायाजाल डाल कर विचलित नही कर सकते। मैंने अपनी रिहाई के लिये आमरण अनशन नही किया है, बल्कि प्रजा मण्डल को रजिस्टर्ड करवाने व कार्य करने के लिये किया है। इस तरह सुमन की तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही थी। कितने दुःख व आश्चर्य की बात है कि निमोनियां की तथाकथित बीमारी में कुनैन के नसातंर्गत इंजेक्शन दिये गये। परिणाम सपस्ट है कि कुनैन की गर्मी ने सुमन का सारा शरीर खुश्क कर दिया और वे पानी-पानी चिल्लाने लगे। आखिर उसी हालात में 20 जुलाई की रात से ही बैहोशी आने लगी। वे घण्टों तक बैहोश रहते और कुछ समय तक होश में आ जाते। आखिर 25 जुलाई 1944 को शाम करीब चार बजे वह घड़ी आ गई, जब सुमन ने अपने देश, आदर्श व संस्था का नाम स्मरण करते हुए भगवान की गोद में अक्षय विश्राम लिया।
उसी रात करीब बारह बजे का समय था। अभी बारिश हुई थी और आकाश में काले बादल छाये हुए थे। उस अन्धेरी रात में सुमन की लाश उन्ही के नीचे बिछे कम्बल में लपेट कर एक बोरी के अन्दर सिल दी गयी, फिर एक वार्डन और एक कैदी उस बोझे को लेकर चुपके से जेल के फाटक से बाहर निकले और भागीरथी के किनारे पहुंचे और फिर वह बोझा भिलगंगा की लहरों में फेंक दिया गया। नदी के पानी में एक छपके की आवाज हुई और फिर सब शान्त।
इस तरह वीर अमर शहीद श्री देव सुमन ने जनता के अधिकारों की रक्षा हैतू अपने प्राण त्याग दिये।
शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
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