लाचित बोड़फुकन

लाचित बोड़फुकन
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लाचित दिवस (24 नवम्बर)

इतिहास में गुम हैं मुगलों को 17 बार हराने वाले अहोम योद्धा: देश भूल गया ब्रह्मपुत्र के इन बेटों को......

50,000 से भी अधिक संख्या में आई मुग़ल फ़ौज को हराने के लिए उन्होंने जलयुद्ध की रणनीति अपनाई। ब्रह्मपुत्र नदी और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र को अपनी मजबूती बना कर लाचित ने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। उन्हें पता था कि ज़मीन पर मुग़ल सेना चाहे जितनी भी तादाद में हो या कितनी भी मजबूत हो, लेकिन, पानी में उन्हें हराया जा सकता है। काजीरंगा पार्क से लेकर कई अन्य जगहों ऊपर इन वीरों की प्रतिमाएँ लगी हुई हैं।

आपने मुगलों और राजपूतों की लड़ाई ज़रूर सुनी होगी। बाबर के ख़िलाफ़ लड़ाई में सैकड़ों घाव लिए लड़ते राणा सांगा की वीरता और अकबर के विरुद्ध घास की रोटी खा कर आज़ादी का युद्ध लड़ने वाले महाराणा प्रताप का नाम सबसे सुना है। उनकी गाथाएँ घर-घर पहुँचनी चाहिए। आज हम आपको कुछ ऐसे योद्धाओं के बारे में बताना चाह रहे हैं, जिन्होंने मुगलों के पसीने छुड़ाए थे। ये हैं असम के अहोम योद्धा। असम को प्राचीन काल में कामरूप या प्राग्यज्योतियशपुरा के रूप में जाना जाता था। इसकी राजधानी आधुनिक गुवाहाटी हुआ करती थी। इस साम्राज्य के अंतर्गत असम की ब्रह्मपुत्र वैली, रंगपुर, बंगाल का कूच-बिहार और भूटान शामिल था।

जैसे मुगलों को मराठों से बार-बार टक्कर मिली, ठीक उसी तरह अहोम ने भी मुगलों को कई बार हराया। दोनों पक्षों के बीच डेढ़ दर्जन से भी ज्यादा बार युद्ध हुआ। अधिकतर बार या तो मुगलों को खदेड़ दिया गया, या फिर वो जीत कर भी वहाँ अपना प्रभाव कायम नहीं रह सके। असम में आज भी 17वीं सदी के अहोम योद्धा लाचित बरपुखान को याद किया जाता है। उनके नेतृत्व में ही अहोम ने पूर्वी क्षेत्र में मुगलों के विस्तारवादी अभियान को थामा था। अगस्त 1667 में उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे मुगलों की सैनिक चौकी पर जोरदार हमला किया। लाचित गुवाहाटी तक बढ़े और उन्होंने मुग़ल कमांडर सैयद फ़िरोज़ ख़ान सहित कई मुग़ल फौजियों को बंदी बनाया।

मुग़ल भी शांत नहीं बैठे। अपमानित महसूस कर रहे मुगलों ने बड़ी तादाद में फ़ौज अहोम के साथ युद्ध के लिए भेजी। सैकड़ों नौकाओं में मुग़ल सैनिकों ने नदी पार किया और अहोम के साथ एक बड़े संघर्ष की ओर बढ़े। मुगलों ने इस बार काफ़ी मजबूत सेना भेजी थी। लेकिन, इस बार जो हुआ वो इतिहास की हर उस पुस्तक में पढ़ाई जानी चाहिए, जहाँ ‘नेवल वॉर’ या फिर जलीय युद्ध की बात आती है। लाचित के नेतृत्व में अहोम सैनिक सिर्फ़ 7 नौकाओं में आए। उन्होंने मुगलों की बड़ी फ़ौज और कई नावों पर ऐसा आक्रमण किया कि वो तितर-बितर हो गए। मुगलों की भारी हार हुई। इस विजय के बाद लाचित तो नहीं रहे लेकिन इस हार के बाद मुगलों ने पूर्वी क्षेत्र की ओर देखना ही छोड़ दिया। मुगलों की इस हार की पटकथा समझने के लिए थोड़ा और पीछे जाना होगा।

लाचित बोड़फुकन
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महान हिन्दू सेनानायक

लाचित बरफूकन (पूरा नाम- चाउ लासित फुकनलुंग ; असमिया: লাচিত বৰফুকন / लाचित बरफूकन) आहोम साम्राज्य के एक सेनापति और बरफूकन थे, जो कि 24जनवरी सन1671 में हुई सराईघाट की लड़ाई में अपनी नेतृत्व-क्षमता के लिए जाने जाते हैं, जिसमें असम पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए रामसिंह प्रथम के नेतृत्व वाली मुग़ल सेनाओं का प्रयास विफल कर दिया गया था। लगभग एक वर्ष बाद बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

लाचित सेंग कालुक मो-साई (एक ताई-अहोम पुजारी) का चौथा पुत्र था। उनका जन्म सेंग-लॉन्ग मोंग, चराइडो में ताई अहोम के परिवार में हुआ था।उनका धर्म फुरेलुंग अहोम था।

लाचित बोड़फुकन ने मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक (सोलधर बरुआ) का पद, निज-सहायक के समतुल्य एक पद, सौंपा गया था जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोड़फुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व वे अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक (घोड़ बरुआ), रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक (या दोलकक्षारिया बरुआ) के पदों पर आसीन रहे।

राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया। राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए. लाचित ने सेना एकत्रित की और 1667 की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर लीं गईं। लाचित ने मुग़लों के कब्ज़े से गुवाहाटी पुनः प्राप्त कर लिया और सराईघाट की लड़ाई में वे इसकी रक्षा करने में सफल रहे।

सराईघाट की लड़ाई
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लाचित और उनकी सेना द्वारा पराजित होने के बाद, मुगल सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते ढाका से असम की ओर चलीं और गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगीं। रामसिंह के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 15,000 तीरंदाज़, 18,000 तुर्की घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था।

लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति राम सिंह असमिया सेना के विरुद्ध कोई भी सफलता पाने में विफल रहा. रामसिंह के एक पत्र के साथ अहोम शिविर की ओर एक तीर छोड़ा गया, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रूपये दिये गये थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चला जाना चाहिए। यह पत्र अंततः अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास पहुंचा। यद्यपि राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।

सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुगलों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे. कुछ सैनिक पीछे हट गए। यद्यपि लाचित गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी वे एक नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढे। उन्होंने सैनिकों से कहा, "यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुग़लों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए. आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया। उनके सैनिक लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ।

लाचित बोड़फुकन विजयी हुए। मुग़ल सेनाएं गुवाहाटी से पीछे हट गईं। मुग़ल सेनापति ने अहोम सैनिकों और अहोम सेनापति लाचित बोड़फुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा, "महाराज की जय हो! सलाहकारों की जय हो! सेनानायकों की जय हो!देश की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहां तक ​​कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका! "

लाचित दिवस
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लाचित बोड़फुकन के पराक्रम और सराईघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय का स्मरण करने के लिए संपूर्ण असम राज्य में प्रति वर्ष 24 नवम्बर को लाचित दिवस (साहित्य: लाचित दिवस) मनाया जाता है। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लाचित मैडल से सम्मानित किया जाता है, जिसका नाम लाचित बोड़फुकन के नाम पर रखा गया है।

दरअसल, लाचित के इस पराक्रम से 50 साल पहले से ही मुगलों और अहोम के संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। सन 1615 में ही मुगलों ने अबू बकर के नेतृत्व में एक सेना भेजी थी, जिसे अहोम ने हराया। हालाँकि, शुरुआत में अहोम को ख़ासा नुकसान झेलना पड़ा, वो अंततः मुगलों को खदेड़ने में कामयाब हुए। दरअसल, 1515 में कूच-बिहार में कूच वंश की शुरुआत हुई। विश्व सिंह इस राजवंश के पहले राजा बने। उनके बेटे नारा नारायण देव की मृत्यु के बाद साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया। पूर्वी भाग कूच हाजो उनके भतीजे रघुदेव को मिला और पश्चिमी भाग पर उनके बेटे लक्ष्मी नारायण पदासीन हुए। लक्ष्मी नारायण का मुगलों से काफ़ी मेलजोल था। अहोम राजा सुखम्पा ने रघुदेव की बेटी से शादी कर पारिवारिक रिश्ता कायम किया। यहीं से सारे संघर्ष की शुरुआत हुई।

उपजाऊ भूमि, सुगन्धित पेड़-पौधों और जानवरों, ख़ासकर हाथियों के कारण कामरूप क्षेत्र समृद्ध था और मुगलों की इस क्षेत्र पर बुरी नज़र होने के ये भी एक बड़ा कारण था। अहोम ने एक पहाड़ी सरदार को अपने यहाँ शरण दी थी। मुग़ल इस बात से भी उनसे नाराज़ थे। जब शाहजहाँ बीमार हुए, तब उसके बेटे आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे थे। इस कलह का फायदा उठा कर अहोम राजा जयध्वज सिंघा ने मुगलों को असम से खदेड़ दिया। उन्होंने गुवाहाटी तक फिर से अपना साम्राज्य स्थापित किया। लेकिन, असली दिक्कत तब आई जब मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने उस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बंगाल के सूबेदार मीर जुमला को भेजा।

मार्च 1662 में मीर जुमला के नेतृत्व में मुगलों को बड़ी सफलता मिली। अहोम के आंतरिक कलह का फायदा उठाते हुए उसने सिमूलगढ़, समधारा और गढ़गाँव पर कब्ज़ा कर लिया। मुगलों को 82 हाथी, 3 लाख सोने-चाँदी के सिक्के, 675 बड़ी बंदूकें 1000 जहाज मिले। उन्होंने इनके अलावा भी कई बहुमूल्य चीजें लूटीं। लेकिन, ठण्ड आते ही मुगलों को वहाँ के मौसम में मुश्किलें आने लगी और उनका दिल्ली से संपर्क टूट गया। मुग़ल वहाँ से भाग खड़े हुए। बारिश का मौसम आते ही मुगलों और अहोम राजा जयध्वज सिंघा में फिर युद्ध हुआ लेकिन अहोम को हार झेलनी पड़ी। मुगलों को 1 लाख रुपए देने पड़े और कई क्षेत्र गँवाने पड़े। ‘ग़िलाजारीघाट की संधि’ अहोम को मज़बूरी में करनी पड़ी। जयध्वज को अपनी बेटी और भतीजी को मुग़ल हरम में भेजना पड़ा।

जयध्वज को ये अपमान सहन नहीं हुआ। उनकी मृत्यु हो गई। प्रजा की रक्षा के लिए उन्हें मज़बूरी में विदेशी आक्रांताओं के साथ संधि करनी पड़ी थी। जयध्वज के पुत्र चक्रध्वज ने इसे अपमान के रूप में लिया और मुगलों को खदेड़ना शुरू किया। वो मुगलों को भगाते-भगाते मानस नदी तक ले गए और मीर जुमला ने जितने भी अहोम सैनिकों को बंदी बनाया था, उन सभी को छुड़ा कर ले आए। अहोम ने अपनी खोई हुई ज़मीन फिर से हासिल की। गुवाहाटी से मुगलों को भगाने के बाद मानस नदी को ही सीमा माना गया। इसके बाद चक्रध्वज ने कहा था कि अब वो ठीक से भोजन कर सकते हैं।

इस अपमान के बाद औरंगज़ेब ने एक बहुत बड़ी फ़ौज असम भेजी लेकिन ऐतिहासिक सरायघाट के युद्ध में लाचित बोरपुखान के हाथों उन्हें भारी हार झेलनी पड़ी। ऊपर हमने इसी युद्ध की चर्चा की है, जिसके बाद लाचित मुगलों के ख़िलाफ़ अभियान के नए नायक बन कर उभरे। 50,000 से भी अधिक संख्या में आई मुग़ल फ़ौज को हराने के लिए उन्होंने जलयुद्ध की रणनीति अपनाई। ब्रह्मपुत्र नदी और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र को अपनी मजबूती बना कर लाचित ने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। उन्हें पता था कि ज़मीन पर मुग़ल सेना चाहे जितनी भी तादाद में हो या कितनी भी मजबूत हो, लेकिन, पानी में उन्हें हराया जा सकता है।

लाचित ने नदी में मुगलों पर आगे और पीछे, दोनों तरफ से हमला किया। मुग़ल सेना बिखर गई। उनका कमांडर मुन्नवर ख़ान मारा गया। सराईघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बोड़फुकन की मृत्यु हो गई। उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।
लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है, "उनका मुख चौड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता।"

असम सरकार ने 2000 में लाचित बोरपुखान अवॉर्ड की शुरुआत की। ‘नेशनल डिफेंस अकादमी’ से पास हुए सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को ये सम्मान मिलता है। आज भी उनकी प्रतिमाएँ असम में लगी हुई हैं। ऐसे में हमें उन अहोम योद्धाओं को याद करना चाहिए, जिन्होंने मराठाओं और राजपूतों जैसे कई भारतीय समूहों की तरह मुगलों से संघर्ष किया। आज भी 24 नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

शत-शत नमन करूँ मैं आपको 💐💐💐💐
🙏🙏
#VijetaMalikBJP

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